Sunday 31 May 2015

सरकारी स्कूल बंद करने का मतलब

सरकारी स्कूल बंद करने का मतलब
                                            --संजय पराते

कम दर्ज संख्या के आधार पर पूरे देश में 40000 स्कूलों को बंद किया जा रहा है.इनमें छत्तीसगढ़ के लगभग 2000 स्कूल हैं. इसे 'युक्तियुक्तकरण' का नाम दिया जा रहा है. इन स्कूलों के बंद होने से छत्तीसगढ़ में लगभग 50-60 हजार बच्चों के प्रभावित होने तथा लगभग 4000 मध्यान्ह भोजन बनाने वाले मजदूरों और सफाईकर्मियों का रोजगार ख़त्म होने की आशंका है. सरकार ने यह तो स्पष्ट किया है किबंद होने वाले स्कूलों के बच्चों को पास के ही किसी और स्कूल में प्रवेश दे दिया जायेगा, लेकिन अभी तक यह स्पष्ट नहीं किया है कि रोजगार खोने वाले इन 4000 मजदूरों को रोजगार-सुरक्षा कैसे दी जाएगी?

तर्क चाहे कुछ भी हों, जिन उदारवादी नीतियों पर मोदी सरकार और तेजी से चल रही है और जिसके फलस्वरूप समाज कल्याण कार्यों में खर्च होने वाले बजट में बड़े पैमाने पर कटौती की जा रही है तथा संविधान द्वारा घोषित राज्य के 'कल्याणकारी' चरित्र को ख़त्म कर इसे 'सब्सिडी मुक्त राज्य' बनाने की पहल की जा रही है, उसके चलते शिक्षा क्षेत्र पर हमला होना ही था. शिक्षा अब राज्य की जिम्मेदारी नहीं रही, बल्कि अब उस बाज़ार की जिम्मेदारी हो गई है, जो मांग और आपूर्ति के नियमों पर काम करती है और जिसके लिए मुनाफा बटोरना ही विकास का पैमाना होता है. ऐसे विकास के लिए अब राज्य व केन्द्र सरकारों के संरक्षण में शिक्षा माफिया प्रतिबद्ध है. इसी प्रतिबद्धता के चलते 'शिक्षा मंदिरों' का कुकुरमुत्तों की तरह विकास हो रहा है. विकास के इस रास्ते पर सभी पूंजीवादी पार्टियों के नेता अपना योगदान दे रहे हैं.

तो छत्तीसगढ़ के 2000 स्कूल बंद हो रहे हैं और इनमें से अधिकांश विरल आबादी व जटिल भौगोलिक क्षेत्र वाले आदिवासी क्षेत्रों में स्थित हैं. ये ऐसे गांव हैं, जहां दो मजरों-टोलों के बीच की दूरी भी दो-तीन किमी. होती है, जिन्हें कोई नदी, नाला या पहाड़ पृथक करता हो सकता है. ये ऐसे गांव हैं, जहां गिनती के 10-15 घर भी न मिले, तो पूरे गांव में पढ़ने वाले 60 बच्चे मिलना तो दूर की बात है! ये ऐसे गांव हैं, जहां स्कूल सालों से पेड़ के नीचे लग रहे हो सकते हैं या स्कूल भवन का निर्माण इतना घटिया हुआ हो सकता है कि ग्रामीण और स्कूल शिक्षक वहां अपने बच्चों को पढ़ने देना मुनासिब न समझते हो. ये ऐसे गांव भी हो सकते हैं, जहां स्कूल बिल्डिंग तो पक्की हो, लेकिन नक्सलियों से निपटने के लिए पुलिस और सैन्य बलों ने कब्ज़ा कर रखा हो. ऐसे स्कूल भी हो सकते हैं ये, जहां शौचालय तक की सुविधा न हो और मध्यान्ह भोजन कुछ प्रभावशाली लोगों के पेट में ही पच जाता हो. इन गांवों में ऐसे स्कूल भी मिल सकते हैं, जहां शिक्षक की जगह कोई चपरासी ही बच्चों को 'अ आ इ ई' और 'एक दो तीन चार' पढ़ाता नजर आये और इस पुनीत काम के लिए कुछ अतिरिक्त मजदूरी शिक्षक से प्राप्त करता हो. यहां ऐसे स्कूल भी हैं, जहां शिक्षक अपने खेतों में बच्चों को 'व्यावहारिक कृषि प्रशिक्षण' देते नजर आएं और आप इन बच्चों को बगैर मजदूरी बैलों की तरह खटते पाएं! छत्तीसगढ़ के इन गांवों में ये स्कूल बच्चियों के लिए कितना सुरक्षित हैं, इसका पता समय-समय पर उजागर होने वाले यौन शोषण मामलों से लग जाता है. लेकिन इन तमाम मुसीबतों के बावजूद इन सरकारी स्कूलों में बच्चे पढ़ रहे हैं, तो ग्रामीणों के हौसलों को ही सलाम कहना चाहिए.

जब ये स्कूल खुले थे, तब भी इनमें दर्ज संख्या 60 नहीं रही होगी. इसके बावजूद, तब जिन आधारों पर ये स्कूल खोले गए थे,  क्या वे कारण अब निराधार और अप्रासंगिक हो गए हैं? इसके पीछे निश्चित ही एक आधार यही था कि शिक्षा क्षेत्र में पिछड़े हुए प्रदेश को और इसमें भी सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़े आदिवासियों-दलितों व अन्य तबकों को किस तरह आगे बढ़ाया जाएं. यह भी चिंता रही होगी कि जब तक इस प्रदेश के एक-एक बच्चे को शिक्षा की रौशनी के दायरे में नहीं समेटा जाता, हमारा समाज व प्रदेश मानव विकास सूचकांक के पैमाने पर पिछड़ा ही रहेगा. 'शिक्षा बाज़ार' की ताकतों के प्रभाव को दरकिनार करते हुए भी ये स्कूल खुले होंगे. कम दर्ज संख्या के बावजूद इन स्कूलों में शिक्षक रहे, बुनियादी सुविधाएं बच्चों को मिले, ड्रॉप-आउट रोकने के लिए मध्यान्ह भोजन उन्हें मिले, छात्रवृत्ति और पाठ्य सामग्री तक उनकी पहुंच बने-- ये सभी चिंताएं भी तब काम कर रही होगी. लेकिन अब ऐसा लगता है कि निजीकरण-उदारीकरण के दौर में अब ये चिंताएं सरकारों की प्राथमिकता में नहीं रहीं.

देश में शिक्षा की स्थिति क्या है? नेशनल आरटीई फोरम के अनुसार, 40% स्कूलों में छात्रों के लिए व 38% स्कूलों में छात्राओं के लिए शौचालय नहीं हैं, 54% स्कूल चारदीवारी से सुरक्षित नहीं हैं, 43% स्कूलों में लाइब्रेरी नहीं हैं और 14% स्कूलों में पीने का पानी. प्राथमिक स्कूलों में ही देश में 12 लाख शिक्षकों की कमी है और 35% से ज्यादा स्कूलों में केवल एक या दो शिक्षक ही हैं , जो पांचों कक्षाओं की पढ़ाई करवाते हैं. आरटीई के तहत निर्धारित शिक्षा संबंधी मापदंडों पर केवल 8% स्कूल ही खरे उतरते हैं. आज भी देश में 6.6 लाख शिक्षक 'अप्रशिक्षित' हैं. इसीलिए सरकारी स्कूलों की बदहाली के दम पर निजी स्कूल फल-फूल रहे हैं और आज ग्रामीण भारत में इनकी संख्या 30.8% हैं. लोकसभा में पेश जानकारी के अनुसार, गांवों में आज आधे से ज्यादा बच्चे इन्हीं निजी स्कूलों में पढ़ रहे हैं.

छत्तीसगढ़ की हालत भी ऐसी ही दयनीय है. एक रिपोर्ट के अनुसार, स्कूल शिक्षा सुविधाओं में राष्ट्रीय स्तर पर हमारा स्थान 27वां है. 50% सरकारी स्कूल छात्राओं के लिए शौचालय से, 59% स्कूल खेल के मैदान से, 44% स्कूल चारदीवारी से, 93% से अधिक कंप्यूटर सुविधाओं से तथा 36% स्कूल शेडयुक्त किचन से वंचित हैं. यह वंचना इतनी ज्यादा है कि प्रदेश में जहां प्राइमरी स्तर पर ड्रॉप-आउट रेट 3.5% है, वाही मिडिल स्तर पर यह बढ़कर 5.5% हो जाती है. वर्ष 2013 में कुल 76204 बच्चों ने स्कूलों को 'अलविदा' कहा.  प्राथमिक स्तर पर जितने बच्चे नाम दर्ज करवाते हैं,  उनमें से 15% भी हायर सेकेंडरी स्तर पर प्रवेश नहीं लेते. केवल 6.2% स्कूल ही आरटीई के मापदंडों को पूरा करते हैं. एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार, प्रदेश में कक्षा पांचवीं के 48% बच्चे दूसरी कक्षा का भी पाठ नहीं पढ़ पाते और एक-तिहाई बच्चे गुणा-भाग तक नहीं कर पाते. बच्चों की इस दयनीय स्थिति के लिए उन अप्रशिक्षित शिक्षकों का योगदान भी कम नहीं है, जो 20 लाख बच्चों को पढ़ा रहे हैं. परदेश के इन स्कूलों में व्याख्याताओं, प्राचार्यों तथा प्रधान पाठकों के 30 हजार से ज्यादा पड़ रिक्त हैं.

बदहाली के इस आलम में प्रदेश में 14% निजी स्कूलों ने पांव पसार लिए हैं, जिनमें आज 15 लाख से ज्यादा बच्चे 'कमरतोड़ फीस' की मार सहते पढ़ रहे हैं. आरटीई के तहत इन निजी स्कूलों को 39 हजार गरीब, अजा-जजा व विकलांग बच्चों को प्रवेश देना है, लेकिन ये इससे इंकार कर रहे हैं और सरकार असहाय है.

सवाल यही है कि इन सरकारी स्कूलों के बंद होने से क्या बाकी बचे स्कूलों की सेहत में कुछ सुधर हो जायेगा? दशकों से वंचना झेल रहे हमारे बच्चों को क्या कुछ बुनियादी सुविधाएं मिलने लगेगी?? हमारे स्कूलों में क्या शिक्षकों की कमी दूर हो जाएगी और शिक्षा का स्तर ऊंचा हो जायेगा??? हमारा अनुभव तो यही कहता है कि इस सबकी कोई आशा ही नहीं करनी चाहिए, क्योंकि सरकार की नीतियां-नीयत भी ऐसा करने की नहीं है. बल्कि उसका जोर तो शिक्षा क्षेत्र के हरेक स्तर पर निजी शिक्षण संस्थाओं को बढ़ावा देने का ही है. यही कारण हैं कि प्रदेश के 10 हजार निजी शिक्षण संस्थाओं में औसतन 150 छात्र पढ़ रहे हैं, तो सकरी स्कूलों में केवल 100. इस गणित से 2000 सरकारी स्कूलों के बंद होने पर 500 से ज्यदा निजी स्कूल खुलने की संभावना पैदा हो जाती है. इन स्कूलों के केवल भारी-भरकम फीस पर नजर डालें (और औसतन 6000 रूपये प्रति वर्ष की ही फीस मानें), तो सरकारी स्कूलों को बंद करने का यह कदम 40-50 करोड़ रुपयों का 'बाज़ार' पैदा करेगा. और यह केवल छत्तीसगढ़ का गणित है!! इसे पूरे देश के पैमाने पर प्रक्षेपित किया जाएं, तो यह नीति 8000 निजी शिक्षण संस्थाओं के लिए 700 करोड़ रुपयों से ज्यादा का बाज़ार पैदा करने जा रही है. फिर यह सवाल भी नाजायज नहीं है कि इस 'शिक्षा बाज़ार' पर कब्ज़ा करने वाला असली खिलाडी कौन है?

भाजपा और आरएसएस घोषित तौर पर संपूर्ण शिक्षा पद्धति का पुनर्गठन 'हिन्दूवादी मूल्यों' को स्थापित करने के लिए करना चाहती है. अपने इस इरादे को उन्होंने कभी छुपाया भी नहीं है और इस दिशा में पाठ्यक्रम के पुनर्गठन, पाठ्यपुस्तकों में अपने मनमाफिक बदलाव से लेकर 'हिन्दू मूल्यों के प्रचार के लिए प्रतिबद्ध' शिक्षा संस्थाओं के संचालन तक सतत उद्यमशील रहे हैं. भाजपा के केन्द्र की सत्ता में आने के बाद उनकी ऐसी उद्यमशीलता में काफी तेजी आई है. विद्या भारती की छतरी के नीचे शिशु मंदिरों से लेकर विश्वविद्यालयों तक चलने वाले हजारों शैक्षणिक संस्थाओं का अनुभव उनके पास हैं कि किस प्रकार सरकारों को धता बताकर, संविधान के बुनियादी सिद्द्घंतों के खिलाफ ही अपने संकीर्ण-सांप्रदायिक उद्देश्यों को आगे बढ़ाने के लिए सार्वजनिक संसाधनों का उपयोग किया जा सकता है. स्पष्ट है कि इन सरकारी स्कूलों को बंद करने से इस खली होने वाले 'रिक्त स्थान' को कौन भरेगा!! इस 'रिक्त स्थान' में वे सरकारी भवन भी आते हैं, जिनका उपयोग शिशु मंदिरों के विकास के लिए किया जा सकता है. इस 'रिक्त स्थान' में वे छात्र-पालक भी आते हैं, जिनके पास पढ़ने-पढ़ाने की ललक तो है, लेकिन निजी स्कूलों के सिवा और कोई विकल्प नहीं होगा. आदिवासी क्षेत्रों में आरएसएस को जमाने का सुनियोजित प्रयास काफी लंबे समय से चल रहा है और शिशु मंदिरों की स्थापना काफी सहायक हुई है. इस दिशा में और तेजी से आगे बढ़ने का ही यह कदम है. लेकिन जो ताकतें इस देश के संविधान और संवैधानिक मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध हैं, जो इस देश के 'कल्याणकारी' राज्य के चरित्र को बनाए रखना चाहते हैं, उन्हें इन सरकारी स्कूलों की रक्षा के लिए आगे आना होगा.


गौ-मांस भक्षण पर चर्चा के बहाने...

गौ-मांस भक्षण पर चर्चा के बहाने...
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रिजिजू के बयान के बाद भाजपा-संघ को सांप सूंघ गया है. न उगलते बन रहा है, न निगलते. यह अलग बात है कि रिजिजू ने यू-टर्न ले लिया है, लेकिन खान-पान पर बहस फिर तेज हो गई कि कुछ लोगों की आस्थाओं के आधार पर या नापसंदगी के आधार पर इसका निर्धारण कैसे किया जा सकता है?
भारत बहुलतावादी देश है. इसका अर्थ है कि न केवल संस्कृति के मामले में, बल्कि खान-पान के मामले में भी वह बहुलतावादी है. यह बहुलता केवल मांसाहारियों में ही नहीं, बल्कि शाकाहारियों में भी पाई जाती है. ऐसे बहुत से शाकाहारी पाए जायेंगे, जो प्याज, लहसून से भी परहेज करते हैं. कुछ लोग कटहल को भी छूना तक पसंद नहीं करते. तो क्या इससे उन्हें यह अधिकार मिल जाता है कि वे प्याज, लहसून, कटहल खाने वालों के खिलाफ जिहाद छेड़ दें? क्या सरकार को इस वर्ग की भावनाओं का सम्मान करते हुए इसके उगाने पर प्रतिबन्ध लगा देना चाहिए--भले ही इसको उगाने वाले किसानों को आत्महत्या का रास्ता अपनाना पड़े?
यही हालत मांसाहारियों के मामले में मिल जाएगी. मैं ऐसे बहुत से लोगों को जानता हूं, जो मुर्गा/मुर्गी और बकरा/बकरी या कछुआ या केंकड़ा नहीं खाते, क्योंकि उनका मानना है कि उनके वंश की उत्पत्ति इन्हीं जीवों से हुई है. ऐसे लोग भी मिल जायेंगे, जो बकरा या मुर्गा तो खाते हैं, लेकिन बकरी या मुर्गी नहीं खाते, क्योंकि वे मानते हैं कि प्रकृति का अस्तित्व मादा से ही है. तो क्या ऐसे लोगों की आस्थाओं के आधार पर कोई अभियान चलाया जा सकता है?
यही बात गाय के मामले में भी लागू होती है. संघी गिरोह इसे हिन्दुओं की धार्मिक आस्था से जुडी बात बताता है, जिसका सम्मान बाकी सभी धर्मों के लोगों को करना चाहिए. लेकिन सभी जानते हैं कि संघी गिरोह के लिए गाय सम्मान का नहीं, सांप्रदायिक उन्माद फैलाने का मामला है. कौन नहीं जानता कि हिन्दुओं में दलितों सहित कई ऐसे समुदाय हैं, जो गाय का मांस बड़े चाव से खाते है, क्योंकि उनके लिए सस्ते प्रोटीन का यही विकल्प है. आदिवासियों में भी गाय के मांस से परहेज नहीं है, जिसे संघी गिरोह जबरदस्ती हिन्दुओं में गिनता है. आदिवासियों को गाय देकर उनका आर्थिक सबलीकरण करने की भाजपाई रमन सरकार की कोशिश इसीलिए विफल हो गई थी कि कुछ तो भ्रष्टाचार के कारण स्वस्थ्य गाय उन्हें नहीं दी गई और बहुत बड़ा कारण यह कि गौ-मांस खाना उन्हें प्रिय है. सभी भाजपाईयों को चुनावों में उन्हें रिझाने के लिए गाय/बैल भेंट देना पड़ता है, हालांकि कोई खुले-आम इसे स्वीकारता नहीं है. यही हालत दूसरे धर्मों की है, जहां कुछ समुदाय गौ-भक्षक है, तो दूसरे इसे सख्त नापसंद करते हैं. गौ-मांस भक्षण के संदर्भ हिन्दुओं के धार्मिक ग्रंथों में बिखरे पड़े है, जहां धार्मिक रिवाजों में गाय और घोड़ों की बलि दी जाती थी और ब्राह्मण भी इसे खाते थे. गायों की बलि देने का रिवाज हिन्दुओं में आज भी पाया जाता है. तो क्या हिन्दुओं का एक प्रभुत्वशाली तबका और उनकी प्रतिनिधि एक सवर्ण पार्टी तथा वर्णवादी हिन्दू समाज की स्थापना की कल्पना को लेकर चलने वाले एक संगठन के अभियान पर गौ-मांस भक्षण पर प्रतिबन्ध लगा देना चाहिए? या इन संगठनों को इस देश की करोड़ों की आबादी के खान-पान का निर्धारण का अधिकार दिया जा सकता है?
जिन अल्पसंख्यकों और विशेषकर मुस्लिमों के खिलाफ संघी गिरोह अभियान चला रहा है, उन्हें यह मालूम होना चाहिए कि बाबर से लेकर अकबर और तमाम मुस्लिम सम्राटों ने मुस्लिम समुदाय से स्वेच्छा से गौ-मांस भक्षण को छोड़ने की अपील की थी, ताकि हिन्दू उच्च वर्ण की भावनाएं आहत न हो. यही कारण है कि मुस्लिमों का एक बड़ा हिस्सा भी आज गौ-मांस भक्षण से दूर रहता है.
आस्थाओं के सवाल पर ही. मुस्लिम सुअर नहीं खाते. क्या हिन्दुओं को सुअर खाना बंद कर देना चाहिए या उनकी आस्थाओं के आधार पर कोई अभियान चलाने की यह सरकार उन्हें इजाज़त देगी? इस देश के कुछ राज्यों में कुत्ते भी खाए जाते है, जबकि एक बड़े हिस्से में कुत्तों को मनुष्य समाज का रखवाला माना जाता है. तो क्या बहुसंख्य की ताकत के आधार पर श्वान-भक्षण पर प्रतिबन्ध लगाने की मुहिम चलाई जाएगी??
संघी गिरोह का दूसरा तर्क गाय की उपयोगिता के बारे में है. गाय की उपयोगिता हमारे जैसे कृषि प्रधान देश में सबसे ज्यादा है, इससे कोई इनकार नहीं कर सकता. गाय का दूध और गोबर मनुष्य के लिए उपयोगी है, तो उसका चमड़ा और मांस भी कोई कम उपयोगी नहीं है. गाय के मांस का खाद्य के रूप में इस्तेमाल ही नहीं होता, बल्कि उसके चमड़े से बने जूते-चप्पल पहनकर संघी गिरोह के नेता कथित गौ-सेवा भी करते हैं. आज तक, और इसमें अटलबिहारी की गौ-प्रेमी सरकार भी शामिल है, गौ-मांस का निर्यात, गाय के चमड़े से बनी चीजें हमारे विदेशी मुद्रा भंडार का बहुत बड़ा स्रोत है. इसी मुद्रा भंडार में वृद्धि का मोदी सरकार आज बखान कर रही है, तो इसमें गौ-हत्या का भी बहुत बड़ा योगदान है. सभी जानते हैं कि बूचड़ खानों में गाय काटने वाले कसाई भले ही मुस्लिम हो, लेकिन कटी गाय को बेचकर उससे मोटी कमाई करने वाले और इस मोटी कमाई का एक हिस्सा और ज्यादा मुनाफे की आस में मोदी के चुनाव में लगाने वाले हिन्दू ही हैं. मोदी राज में यह धंधा काफी फला-फूला ही है.
तो मित्रो, किसी राज्य में भाजपा के सत्ता में आने से ही कोई राज्य हिन्दू राज्य नहीं ही जाता. उसी प्रकार मोदी के सत्ता में आने से ही यह देश हिन्दू राष्ट्र नहीं हो गया. यह देश संविधान पर टिका राज्य है, जिसकी बुनियाद बहुलतावाद और धर्म-निरपेक्षता है. यही बुनियाद इस देश को सब लोगों का देश बनाता है, चाहे उनका धर्म, भाषा, संस्कृति और खानपान ही भिन्न क्यों न हो. संघी मित्रों, इस पर हमला करोगे, धर्म-विद्वेष के आधार पर दूसरे धर्मों के लोगों की रोजी-रोटी छीनने की कोशिश करोगे, तो तुम्हारे प्रधान को चौकीदारी की यह जो नौकरी मिली है, वह भी सुरक्षित नहीं रहेगी. कुछ इतिहास से सबक लो, जो यही बताता है कि बड़े-बड़े तानाशाह आये, नफरत के आधार पर उन्होंने अपने साम्राज्य को अक्षुण्ण रखने की कोशिश की, लेकिन कामयाब नहीं हुए. आज तो राजाओं का नहीं, बादशाहों का नहीं, लोकतंत्र का राज है. यहां तानाशाही और नफरत नहीं जीतती, जीतता है केवल प्यार, सहिष्णुता, सद्भाव.
इस देश की बहुलतावादी खानपान की संस्कृति जिन्दा रहेगी. माँसाहारी के साथ शाकाहारी लोग भी रहेंगे. गौ-भक्षकों के साथ बकरा, सुअर और मुर्गा भक्षक भी प्यार से ही रहेंगे. न नेपाल हिन्दू राष्ट्र रहा, न भारत बनेगा. इतिहास ने इस देश की नियति कर दी है कि सघी गिरोह के चंगुल में वह नहीं फंसेगा.

Sunday 10 May 2015

कन्हर बांध से उपजे सवाल

छत्तीसगढ़ के बलरामपुर जिले से सटे उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले में कन्हर बांध के निर्माण से छत्तीसगढ़ के इस जिले के रामचंद्रपुर ब्लाक से 19 गांव पूर्णतः तथा 8 गांव आंशिक रुप से डुबान में आ रहे हैं। इन 27 गांवों की सम्मिलित आबादी लगभग 50 हजार है और इसमें लगभग दो तिहाई आदिवासी-दलित हैं। इस बांध निर्माण का विरोध न केवल उत्तर प्रदेश में हो रहा है, बल्कि छत्तीसगढ़ में भी- और अभी हाल ही में विभिन्न जनसंगठनों व वामपंथी पार्टियों के विरोध के बाद छत्तीसगढ़ सरकार ने भी अपनी आपत्ति दर्ज करा दी है (लेकिन 5 माह बाद!!) । इस बांध निर्माण ने विकास के कार्पोरेट परस्त उस मॉडल पर फिर बहस करने का मौका दिया है, जिसे मोदी सरकार आगे बढ़ाना चाह रही है।
दरअसल, इस बांध निर्माण की पूरी योजना 1976 में परिकल्पित की गई थी और तब से अब तक कन्हर नदी में काफी पानी बह चुका है इस परियोजना की कल्पना मुख्यतः किसानों के खेतों को सिंचाई हेतु पानी देने के लिए की गई थी इसके लिए उत्तर प्रदेश के 11 गांव विस्थापन की पीड़ा झेलने के लिए तैयार थे। शायद सभी ने देश के विकास के लिए अपनी ‘कुर्बानी’ देना स्वीकार कर लिया था और लगभग 2700 रुपये प्रति एकड़ के हिसाब से मुआवजा भी ले लिया था। तब पर्यावरण, विस्थापन, भूमि अधिग्रहण के सवाल इतने प्रखर रुप में मौजूद नहीं थे, जैसे कि आज हैं। तब न पेसा कानून था, न आदिवासी वनाधिकार कानून और न ही वन संरक्षण कानून।
लेकिन उस समय भी जनता और किसानों के हितों की चिंता ‘सरकारी चिंता’ नहीं थी। यदि होती तो बांध कब का बन जाता। नहीं थी, इसलिए यह परियोजना पूरे 38 सालों से लटकी पड़ी रही। सरकार ने इस अधिग्रहित भूमि पर अपना कब्जा तक नहीं जमाया और भूस्वामी इस जमीन पर काबिज रहे, खेती-बाड़ी करते रहे। इस बीच नया भूमि अधिग्रहण कानून बन गया, जो यह कहता है कि अधिग्रहित भूमि का 5 साल तक उपयोग न हो, तो इसे मूल भूस्वामी को लौटा दिया जाये और अधिग्रहण की प्रक्रिया नये सिरे से, नई मुआवजा दरों व पुनर्वास प्रावधानों के अनुसार की जाये। इससे पहले आदिवासी वनाधिकार कानून भी अस्तित्व में आ गया था, जिसके अनुसार विस्थापन से पूर्व वन भूमि पर काबिज आदिवासियों के वनाधिकारों की स्थापना जरूरी है। पेसा कानून भी बन गया, जो विकास कार्यों के नाम पर भूमि अधिग्रहण के लिए ‘ग्राम सभा की सहमति या असहमति’ को सर्वोच्च वरीयता देता है। पर्यावरण व वन संरक्षण कानून भी बन गया, जो जैव विविधता की कीमत पर विकास की इजाजत नहीं देता।
ये सब कानून जनविरोधी नहीं हैं, विकास विरोधी तो कतई नहीं। हां, अंधाधुंध पूंजीवादी विकास, जिसका धन कुबेरों की तिजोरी भरना ही लक्ष्य रहा है, कि प्रक्रिया में उन चिंताओं -चुनौतियां का समाधान पेश करने की कोशिश जरूर करते हैं, जो मानव जाति के अस्तित्व और मानव सभ्यता के सामने उपस्थित हुई है और काफी प्रखरता के साथ उपस्थित हुई है।
लेकिन आज कन्हर बांध का निर्माण इन तमाम कानूनों को धता बताकर, पुरानी पर्यावरणीय स्वीकृतियों के आधार पर किया जा रहा है, तो यह स्पष्ट है कि पानी किसानों के खेतों को सींचने के लिए नहीं, उद्योगपतियों के उद्योगों को सींचने और उनकी तिजोरियों को भरने के लिए दिया जाने वाला है। प्राकृतिक संपदा की हड़प इसी तरह होती है- जिसके केन्द्र में आज जल, जंगल, जमीन और खनिज ही है। यह ‘हड़प’ स्थानीय समुदायों का पुनर्वास नहीं करती, बल्कि उसका कत्लेआम करती है। इसका एक नजारा तो 14 अप्रैल को दिखा, जहां बांध निर्माण का विरोध कर रहे स्थानीय वाशिंदों पर पीएसी ने गोलियां चलाई और एक को मार डाला, 39 को घायल कर दिया। लगभग 1000 लोगों पर फर्जी मुकदमें गढ़े गये हैं, ताकि विरोध की आवाज को कुचला जा सके। यह ‘हड़प’ बंदूक की नोक पर लोगों को अपने अधिकारों को त्यागकर विस्थापन के लिए ‘सहमत’ करती है। उत्तरप्रदेश सरकार और सोनभद्र का स्थानीय प्रशासन इसी प्रकार की सहमति को तैयार करने के खेल में लगा हुआ है।
लेकिन विकास के इस बुल्डोजर के नीचे अब किसी एक राज्य की कोई एक स्थानीय आबादी ही नहीं आती, पड़ोसी राज्यों के लोग भी इसका शिकार होते हैं। जिस तरह आंध्र का पोलावरम बांध दक्षिण छत्तीसगढ़, उसी प्रकार कन्हर का बांध उत्तर छत्तीसगढ़ (और झारखंड) के लोगों को विस्थापित करने जा रहा है। छत्तीसगढ़ का जल संसाधन विभाग 27 गांवों के पूर्णतः या आंशिक डूबने की बात स्वीकार कर रहा है, लेकिन छत्तीसगढ़ सरकार अभी भी केवल 268 हेक्टेयर भूमि के डूबने की बात कर रहा है। प्रश्न यही है कि उत्तरप्रदेश में बन रहे बांध का खामियाजा छत्तीसगढ़ की जनता क्यों भुगते ? उत्तर भी बहुत सीधा-सा है कि वित्तीय पूंजी राष्ट्रों की सीमाओं का अतिक्रमण करती है, तो कार्पोरेट विकास भी राज्यों की सीमाओं को नहीं देखते। उसे न उत्तर प्रदेश के लोगों के अधिकारों की चिंता होती है और न ही छत्तीसगढ़ के लोगों की। उसकी चिंता केवल यही होती है कि अपना मुनाफा किस तरह बढ़ाया जाये। इस मुनाफे की आड़ में आने वाली हर दीवार को वह गिरा देना चाहती है।
यही कारण है कि 5 साल तक छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार एक लंबित चुप्पी साधे रही। वर्ष 2010 में उसने उत्तरप्रदेश सरकार को इस बांध निर्माण के लिए अपनी सहमति प्रदान की, लेकिन इससे प्रभावित होने वाले 27 गांवों के लोगों के हितों की चिंता उसने कभी नहीं की। यदि की होती, तो नये कानूनों के प्रावधानों के अनुसार पुनर्वास और मुआवजे की कोई कार्ययोजना उसके हाथों में होती। अभी तो यही स्पष्ट नहीं है कि बांध निर्माण के लिए सहमति उसने किन शर्तों पर दी है और उसका आज तक कितना पालन हुआ है।
स्पष्ट है कि वनाधिकार कानूनों की स्थापना किये बिना, जिस पर इस क्षेत्र में अमल ही नहीं हुआ है, आदिवासियों को भू अधिग्रहण का कोई लाभ नहीं मिलने वाला है। बिना भूमि अधिग्रहण के किसी मुआवजे व पुनर्वास योजना के लिए भी सरकार बाध्य नहीं है। फिर पेसा कानून के तहत स्थानीय समुदाय की सहमति का सवाल ही कहां खड़ा होता है? यह हड़प नीति साफ है कि बिना कुछ दिये आदिवासी व किसानों से उसकी जमीन ले लो- विस्थापन की उस बर्बर प्रक्रिया में उसे धकेल दो, जहां उसका अस्तित्व भी शायद ही बचे। छत्तीसगढ़ सरकार का ऐसा रुख आश्चर्यजनक नहीं है। आखिर मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार से वह पीछे क्यों रहेगी, जहां लोग अपनी जमीन बचाने के लिए पिछले एक माह से जल सत्याग्रह कर रहे हैं, अपने शरीर को गला रहे हैं, लेकिन सरकार उन्हें मानवीय जीवन के लिए जमीन देने के लिए तैयार नहीं है। आज की सरकारें कार्पोरेटों के लिए जमीन छीन सकती हैं, आम जनता को जीने के लिए जमीन दे नहीं सकती। वो दिन गए, जब भूमि सुधारों की बात होती थी, भाषणों में ही सही।
कन्हर बांध निर्माण का मामला इस देश में कार्पोरेटी विकास का जो मॉडल अपनाया जा रहा है, उसका विशिष्ट उदाहरण है। इस प्रकरण में वे तमाम चीजें एक साथ देखने को मिलेंगी, जिसे मोदी सरकार लागू करना चाहती है– आम जनता के जनतांत्रिक अधिकारों व तमाम नियम-कायदों को रौंदकर। भूमि अधिग्रहण कानून अध्यादेश के ‘जनहितैषी’ होने के पक्ष में भाजपा जो ढिंढोरा पीट रही है, उसका वास्तविक नग्न स्वरूप इस मामले में देखने को मिल रहा है। यही मामला यह स्पष्ट करने के लिए काफी है कि जिस वनाधिकार कानून का संप्रग राज में भाजपा ने समर्थन किया था, भाजपा शासित राज्यों में उसको लागू क्यों नहीं किया गया?
अब जनता को तय करना है कि वह ‘भूमि हड़प कार्पोरेट विकास’ के पक्ष में है या कार्पोरेट मुनाफे को मात देने के लिए अपनी भूमि और संपत्ति बचाने के पक्ष में? जनता का बहुत ही स्पष्ट जवाब है, जो पूरे देश में गूंज रहा है– विस्थापन की कब्र पर विकास की बातें नहीं चलेगी। क्या आम जनता की नुमाइंदगी का दावा करने वाली राजनैतिक पार्टियां इस आवाज को सुनने के लिए तैयार हैं?

एक पाती प्रधानमंत्री के नाम....

एक पाती प्रधानमंत्री के नाम....
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वेलडन साहब, क्या बात कही है!!! हम ईंट का जवाब पत्थर से नहीं देते, बन्दूक का जवाब गोली से नहीं देते या गोली का जवाब बन्दूक से नहीं देते, हिंसा किसी समस्या का समाधान नहीं, बन्दूक छोड़कर नक्सली पीड़ित बच्चों के साथ पांच दिन रहकर देखे...आदि-इत्यादि!! याद नहीं आता कि सलमान ने भी अपनी किसी फिल्म में ऐसे धांसू डायलाग मारे हो!!!
बस, थोड़ी-सी कसर रह गयी. अपहृतों को छुड़ाने पहुंच जाते बिना किसी गोली-बन्दूक-पत्थरों के नक्सलियों के पास, तो मज़ा ही आ जाता. गरियाने वालों की नानी बंद हो जाती. हम छाती ठोंककर कह सकते थे, देखो केजरीवाल एक गजेन्द्र को नहीं बचा पाया, हमारा हीरो सैंकड़ों आदिवासियों को छुड़ा लाया एक झटके में. इसे कहते हैं 56 इंच की छाती!! उनकी बोलती तो तब भी बंद कर सकते थे साहब, जब नया रायपुर में पंडाल बनाने वाले विनय मित्तल नाम के कमीशनखोर के खिलाफ एफआइआर करके तुरंत गिरफ्तार करवा देते. 69 पुलिस वाले और मजदूर जीवन के लिए मौत से संघर्ष कर रहे हैं और एक बेचारा तो बिना ईलाज, बिना सराकारी मदद तो मर ही चुका है और यह पट्ठा उन्हें मदद पहुँचाने के बजाय भाग निकला. अब विपक्ष को चिल्लाने का मौका मिल गया न कि श्रम कानूनों का पालन करना तो दूर, मित्तल साहब इन मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी भी नहीं दे रहे थे, और वह भी मंत्रियों और अधिकारियों की नाक के नीचे. ऐसे में आपका सीना भले चौड़ा बना रहे, हमारा सीना तो थोडा सिकुड़ ही जाता है न!! पता तो ये भी चला है कि ये वाले मित्तल साहब हमारे सुधांशु मित्तल के कोई रिश्तेदार ही है और इस मित्तल साहब के समान ही वो मित्तल भी हमारी दस करोड़ी पार्टी के दस नम्बरी मेंबर है. क्या यह सही है?.. . खुल्लमखुल्ला न सही, तो हमारे कान में तो बता ही दें, हम लोग किसी को बताने थोड़े ही जायेंगे. वैसे भी पार्टी सदस्यों के बीच पारदर्शिता तो रहना ही चाहिए, उन्हें एक-दूसरे को पहचानना ही चाहिए, ताकि वक्त जरूरत लेन-देन के समय इस सदस्यता का कुछ फायदा तो मिले. वैसे इतना तो हमें मालूम है कि रायपुर के भारत किराया भंडार वाला भी हमारा ही रिश्तेदार है.
वैसे एक बात समझ नहीं आई कि नक्सलियों को ऐसी बेतुकी सलाह क्यों दे डाली? इससे ऐसा नहीं लगता है कि वे शहरों में हमारे साथ ही रहते है... और यदि वे जंगलों में ही रहते हैं तो आदिवासियों के साथ ही तो रहते होंगे. हां, उन्हीं आदिवासियों के साथ, जिनको पकड़-पकड़ कर हमारे बहादुर आईजी कल्लूरी साहब आत्म-समर्पण करवा रहे हैं और फिर गांव भिजवा रहे हैं. उनकी बहादुरी के जोश में तो अपने कई भाजपा कार्यकर्त्ता भी चपेट में आ गए और उनका भी समर्पण हो गया और इसी से पूरी पोल-पट्टी भी खुल गई. बहादुरी दिखाने के लिए कोई अपनों पर ही वार करता है भला!! लेकिन नक्सलियों को मारने के ठेके के लिए तो हमने अपने दिल पर पत्थर रखकर समझा लिया कि गेहूं के साथ तो घुन पिसता ही है. सलवा-जुडूम का माल खाना है तो कुछ करके तो दिखाना ही होगा.
वैसे इन 'जुडूम' वालों ने भी कुछ कम जुल्म नहीं ढाया है इन आदिवासियों पर. उनके घर जलाए, बलात्कार किये, हत्याएं कीं, उन्हें अपने गांवों से विस्थापित कर आपके शिविरों में धकेला और उनके राशन-पानी का ठेका अपने सिर लिया. अगर 'जुडूम' वालों को साहब आप कहते कि पीड़ित आदिवासियों के बीच, उनके बाल-बच्चों की हाय के साथ पांच दिन काटे, तो इसका ज्यादा असर होता. इससे लगे हाथों अपने संघ के 'हिन्दू दर्शन' का प्रचार भी कर आते पूरी सरकारी सुरक्षा के साथ...हम भी बता आते कि बिना पत्थरों के ईंट का जवाब कैसे दिया जाता है!! लेकिन हाय आपने ये मौका ही हमें नहीं दिया, इस काबिल ही हमें नहीं समझा कि बिना गोली के बंदूकों से जवाब दे सकें और पूरी दुनियां को इस विश्व के सबसे बड़े शांति-अभियान के बारे में फिर से बता सके.
वैसे कर्माजी की आत्मा फिर जाग रही हैं. कहते भी हैं कि मनुष्य का शरीर मरता है, विचार नहीं. फिर शांति-अभियान के चलने के किस्से सुनाई में आ रहे हैं. अच्छी बात है, लेकिन इस बार हमको न भूलना. हम भी बता देंगे कि महात्मा गांधी से बड़े शांति प्रेमी हम ही है. बड़े शांति प्रेमी के सामने दूसरा तो छोटा शांति प्रेमी ही होगा और हर छोटा शांति प्रेमी ज्यादा हिंसक ही होगा. मतलब, गांधीजी हिंसक थे, और हमसे ज्यादा हिंसक तो थे ही. वैसे भी इसका उदाहरण देने की हमें क्या जरूरत है कि देश में शांति स्थापना में हमारा योगदान कितना है!! हमने बंजारे से लेकर बजरंगी और कोडनानी तक सबको जमानत पर बाहर करके दंगा पीड़ितों की सेवा में लगा दिया है. इस सेवा की असर से गोधरा में आग लगाने वाले आज सर्वत्र 'शांति-शांति' का यज्ञ कर रहे हैं. हिंसकों को अहिंसक बनाना कोई हमसे सीखे!!!
तो साहब, हमारा एक साल पूरा होने वाला है और पूरे होते साल में कोई धमाका न होता, तो किसी को क्या पता चलता कि हम एक साल के हो गए हैं. अभी तो बहुत काम करना है. 24 हजार करोड़ का सौदा हुआ है, तो हमारे बाल-बच्चों को भी 24 पैसे कमाने का मौका मिलेगा. कुछ कमाई होगी, तो देश का विकास होगा, देश का विकास होगा तो कुछ पार्टी फण्ड भी बनेगा. वर्ना तो लोग चिल्ला ही रहे हैं कि हम बंदूकों के दम पर जमीन लूट रहे हैं, ये नहीं देख रहे हैं कि इन बंदूकों में गोलियां नहीं हैं. चिल्लाने वाले चिल्ला रहे हैं कि फसल का भाव नहीं मिल रहा है, ये नहीं देख रहे हैं कि हम जमीन का भाव बढ़ा रहे है. चिल्लाने वाली जनता है और जनता का क्या? आखिर 69% ने तो हमें वोट ही नहीं दिया!! सत्ता तो मिली हमें अडानी-अंबानी-टाटाओं की मदद से. आगे भी टेका तो वे ही देंगे. पार्टी सही लाइन पर चल रही है, इसे मजबूती से पकड़कर रखना. थोडा कहा, बहुत-बहुत समझना...
                                                                                                                   आपका एक अदना-सा कार्यकर्त्ता,                                                                                                                            चना-मुर्रा खाकर चाय बेचने वाला....