Sunday 31 May 2015

गौ-मांस भक्षण पर चर्चा के बहाने...

गौ-मांस भक्षण पर चर्चा के बहाने...
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रिजिजू के बयान के बाद भाजपा-संघ को सांप सूंघ गया है. न उगलते बन रहा है, न निगलते. यह अलग बात है कि रिजिजू ने यू-टर्न ले लिया है, लेकिन खान-पान पर बहस फिर तेज हो गई कि कुछ लोगों की आस्थाओं के आधार पर या नापसंदगी के आधार पर इसका निर्धारण कैसे किया जा सकता है?
भारत बहुलतावादी देश है. इसका अर्थ है कि न केवल संस्कृति के मामले में, बल्कि खान-पान के मामले में भी वह बहुलतावादी है. यह बहुलता केवल मांसाहारियों में ही नहीं, बल्कि शाकाहारियों में भी पाई जाती है. ऐसे बहुत से शाकाहारी पाए जायेंगे, जो प्याज, लहसून से भी परहेज करते हैं. कुछ लोग कटहल को भी छूना तक पसंद नहीं करते. तो क्या इससे उन्हें यह अधिकार मिल जाता है कि वे प्याज, लहसून, कटहल खाने वालों के खिलाफ जिहाद छेड़ दें? क्या सरकार को इस वर्ग की भावनाओं का सम्मान करते हुए इसके उगाने पर प्रतिबन्ध लगा देना चाहिए--भले ही इसको उगाने वाले किसानों को आत्महत्या का रास्ता अपनाना पड़े?
यही हालत मांसाहारियों के मामले में मिल जाएगी. मैं ऐसे बहुत से लोगों को जानता हूं, जो मुर्गा/मुर्गी और बकरा/बकरी या कछुआ या केंकड़ा नहीं खाते, क्योंकि उनका मानना है कि उनके वंश की उत्पत्ति इन्हीं जीवों से हुई है. ऐसे लोग भी मिल जायेंगे, जो बकरा या मुर्गा तो खाते हैं, लेकिन बकरी या मुर्गी नहीं खाते, क्योंकि वे मानते हैं कि प्रकृति का अस्तित्व मादा से ही है. तो क्या ऐसे लोगों की आस्थाओं के आधार पर कोई अभियान चलाया जा सकता है?
यही बात गाय के मामले में भी लागू होती है. संघी गिरोह इसे हिन्दुओं की धार्मिक आस्था से जुडी बात बताता है, जिसका सम्मान बाकी सभी धर्मों के लोगों को करना चाहिए. लेकिन सभी जानते हैं कि संघी गिरोह के लिए गाय सम्मान का नहीं, सांप्रदायिक उन्माद फैलाने का मामला है. कौन नहीं जानता कि हिन्दुओं में दलितों सहित कई ऐसे समुदाय हैं, जो गाय का मांस बड़े चाव से खाते है, क्योंकि उनके लिए सस्ते प्रोटीन का यही विकल्प है. आदिवासियों में भी गाय के मांस से परहेज नहीं है, जिसे संघी गिरोह जबरदस्ती हिन्दुओं में गिनता है. आदिवासियों को गाय देकर उनका आर्थिक सबलीकरण करने की भाजपाई रमन सरकार की कोशिश इसीलिए विफल हो गई थी कि कुछ तो भ्रष्टाचार के कारण स्वस्थ्य गाय उन्हें नहीं दी गई और बहुत बड़ा कारण यह कि गौ-मांस खाना उन्हें प्रिय है. सभी भाजपाईयों को चुनावों में उन्हें रिझाने के लिए गाय/बैल भेंट देना पड़ता है, हालांकि कोई खुले-आम इसे स्वीकारता नहीं है. यही हालत दूसरे धर्मों की है, जहां कुछ समुदाय गौ-भक्षक है, तो दूसरे इसे सख्त नापसंद करते हैं. गौ-मांस भक्षण के संदर्भ हिन्दुओं के धार्मिक ग्रंथों में बिखरे पड़े है, जहां धार्मिक रिवाजों में गाय और घोड़ों की बलि दी जाती थी और ब्राह्मण भी इसे खाते थे. गायों की बलि देने का रिवाज हिन्दुओं में आज भी पाया जाता है. तो क्या हिन्दुओं का एक प्रभुत्वशाली तबका और उनकी प्रतिनिधि एक सवर्ण पार्टी तथा वर्णवादी हिन्दू समाज की स्थापना की कल्पना को लेकर चलने वाले एक संगठन के अभियान पर गौ-मांस भक्षण पर प्रतिबन्ध लगा देना चाहिए? या इन संगठनों को इस देश की करोड़ों की आबादी के खान-पान का निर्धारण का अधिकार दिया जा सकता है?
जिन अल्पसंख्यकों और विशेषकर मुस्लिमों के खिलाफ संघी गिरोह अभियान चला रहा है, उन्हें यह मालूम होना चाहिए कि बाबर से लेकर अकबर और तमाम मुस्लिम सम्राटों ने मुस्लिम समुदाय से स्वेच्छा से गौ-मांस भक्षण को छोड़ने की अपील की थी, ताकि हिन्दू उच्च वर्ण की भावनाएं आहत न हो. यही कारण है कि मुस्लिमों का एक बड़ा हिस्सा भी आज गौ-मांस भक्षण से दूर रहता है.
आस्थाओं के सवाल पर ही. मुस्लिम सुअर नहीं खाते. क्या हिन्दुओं को सुअर खाना बंद कर देना चाहिए या उनकी आस्थाओं के आधार पर कोई अभियान चलाने की यह सरकार उन्हें इजाज़त देगी? इस देश के कुछ राज्यों में कुत्ते भी खाए जाते है, जबकि एक बड़े हिस्से में कुत्तों को मनुष्य समाज का रखवाला माना जाता है. तो क्या बहुसंख्य की ताकत के आधार पर श्वान-भक्षण पर प्रतिबन्ध लगाने की मुहिम चलाई जाएगी??
संघी गिरोह का दूसरा तर्क गाय की उपयोगिता के बारे में है. गाय की उपयोगिता हमारे जैसे कृषि प्रधान देश में सबसे ज्यादा है, इससे कोई इनकार नहीं कर सकता. गाय का दूध और गोबर मनुष्य के लिए उपयोगी है, तो उसका चमड़ा और मांस भी कोई कम उपयोगी नहीं है. गाय के मांस का खाद्य के रूप में इस्तेमाल ही नहीं होता, बल्कि उसके चमड़े से बने जूते-चप्पल पहनकर संघी गिरोह के नेता कथित गौ-सेवा भी करते हैं. आज तक, और इसमें अटलबिहारी की गौ-प्रेमी सरकार भी शामिल है, गौ-मांस का निर्यात, गाय के चमड़े से बनी चीजें हमारे विदेशी मुद्रा भंडार का बहुत बड़ा स्रोत है. इसी मुद्रा भंडार में वृद्धि का मोदी सरकार आज बखान कर रही है, तो इसमें गौ-हत्या का भी बहुत बड़ा योगदान है. सभी जानते हैं कि बूचड़ खानों में गाय काटने वाले कसाई भले ही मुस्लिम हो, लेकिन कटी गाय को बेचकर उससे मोटी कमाई करने वाले और इस मोटी कमाई का एक हिस्सा और ज्यादा मुनाफे की आस में मोदी के चुनाव में लगाने वाले हिन्दू ही हैं. मोदी राज में यह धंधा काफी फला-फूला ही है.
तो मित्रो, किसी राज्य में भाजपा के सत्ता में आने से ही कोई राज्य हिन्दू राज्य नहीं ही जाता. उसी प्रकार मोदी के सत्ता में आने से ही यह देश हिन्दू राष्ट्र नहीं हो गया. यह देश संविधान पर टिका राज्य है, जिसकी बुनियाद बहुलतावाद और धर्म-निरपेक्षता है. यही बुनियाद इस देश को सब लोगों का देश बनाता है, चाहे उनका धर्म, भाषा, संस्कृति और खानपान ही भिन्न क्यों न हो. संघी मित्रों, इस पर हमला करोगे, धर्म-विद्वेष के आधार पर दूसरे धर्मों के लोगों की रोजी-रोटी छीनने की कोशिश करोगे, तो तुम्हारे प्रधान को चौकीदारी की यह जो नौकरी मिली है, वह भी सुरक्षित नहीं रहेगी. कुछ इतिहास से सबक लो, जो यही बताता है कि बड़े-बड़े तानाशाह आये, नफरत के आधार पर उन्होंने अपने साम्राज्य को अक्षुण्ण रखने की कोशिश की, लेकिन कामयाब नहीं हुए. आज तो राजाओं का नहीं, बादशाहों का नहीं, लोकतंत्र का राज है. यहां तानाशाही और नफरत नहीं जीतती, जीतता है केवल प्यार, सहिष्णुता, सद्भाव.
इस देश की बहुलतावादी खानपान की संस्कृति जिन्दा रहेगी. माँसाहारी के साथ शाकाहारी लोग भी रहेंगे. गौ-भक्षकों के साथ बकरा, सुअर और मुर्गा भक्षक भी प्यार से ही रहेंगे. न नेपाल हिन्दू राष्ट्र रहा, न भारत बनेगा. इतिहास ने इस देश की नियति कर दी है कि सघी गिरोह के चंगुल में वह नहीं फंसेगा.

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