Wednesday 8 July 2015

' टोबा टेकसिंह ' उर्फ़ ' बाकी सब खैरियत है '

मंटो की कहानी पर आधारित यह नाटक महाराष्ट्र मंडल के मंच पर इप्टा, रायपुर द्वारा मंचित किया गया था.
' टोबा टेकसिंह ' उर्फ़ ' बाकी सब खैरियत है '
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" मनों मिट्टी के नीचे पहुंचते ही मंटो ने फिर सोचा कि वो बड़ा अफ़सानानिगार है या खुदा.
खुदा ने मंटो के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा : यह ' टोबा टेकसिंह ' तुमने लिखा है?
मंटो ने कहा -- लिखा है तो क्या हुआ?....हटाओ अपना हाथ.
खुदा के चेहरे पर एक अजीब सी मुस्कराहट आई. उसने मंटो के कंधे पर से अपना हाथ हटा लिया और उसकी तरफ़ अज़ीब नज़रों से देखकर कहने लगा -- जा, तेरे सारे गुनाह माफ़ किये."
मंटो की मौत के बाद देवेन्द्र सत्यार्थी का यह अफ़साना है, जो बता रहे हैं कि मंटो की ' टोबा टेकसिंह ' उसकी पूरी लेखनी और गुनाहों पर भारी है. और मंटो के गुनाह क्या थे? यही कि उन्होंने अपने समय और पुरूषवादी समाज की तथाकथित नैतिकता, उसकी क्रूर यौनिकता और झूठ का बेरहमी से पर्दाफ़ाश किया. इसके लिए उन्होंने वेश्याओं, शराबियों और जुआडियों को अपनी कहानियों का पात्र बनाया. तब की साहित्यिक दुनिया के वे सबसे बड़े 'छिनाल ' थे कि खुदा भी उनसे रूठा हुआ था. समकालीन प्रगतिशील आंदोलन ने भी उन्हें पूरी तरह स्वीकार नहीं किया. 1945 में प्रगतिशील उर्दू लेखकों के सम्मलेन में ' साहित्य में अश्लीलता परोसने के लिए ' उनके खिलाफ एक प्रस्ताव पारित होते-होते बचा. पकिस्तान में उनके साहित्य पर प्रतिबन्ध लगा, जबकि हिंदुस्तान के विभाजन के बाद उन्होंने पाकिस्तान को अपना वतन बनाया. इसके बावजूद वे इस विभाजन को पूरी ज़िंदगी स्वीकार नहीं कर पाए और पाकिस्तान में रहते हुए ही हुक्मरानों को चुनौती देते हुए ' टोबा टेकसिंह ' जैसी एक ऐसी उत्कृष्ट कहानी दी कि खुदा ने भी उनके सारे गुनाहों को माफ़ कर दिया.
मंटो के जीवित रहते भले ही उसे स्वीकारा न गया हो, आज वही ' अश्लील ' मंटो हिंदुस्तान के साहित्यिक जगत में पूरी प्रखरता के साथ चमक रहा है. जब उन्होंने इस दुनिया को छोड़ा, उनकी लिखी कहानी पर बनी फिल्म ' मिर्ज़ा ग़ालिब ' हिट हो चुकी थी, जिसे बाद में पहला राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार ' स्वर्ण कमल ' भी मिला. उनकी मौत के 57 साल बाद, उनकी जन्म शती के मौके पर पकिस्तान सरकार ने उन्हें ' निशान-ए-इम्तियाज़ ' देने का फ़ैसला तो किया, लेकिन फिर भी उसे मंटो की कहानियों से सेंसर हटाना गवारा न हुआ. लेकिन फिर भी, मंटो आज हिंदुस्तान की गंगा-जमुनी साझा संस्कृति और प्रगतिशील विरासत के प्रतीक हैं.
मंटो की कहानी ' टोबा टेकसिंह ' को अपने नाटक में ढालते हुए नाटककार अख्तर अली ने मंटो की विभाजनविरोधी दूसरी कहानियों के संवादों का भी बखूबी इस्तेमाल किया है -- "यह मत कहो कि एक लाख हिन्दू और एक लाख मुसलमान मरे हैं -- यह कहो कि दो लाख इंसान मरे हैं --". यह मंटो की कहानी ' सहाय ' का शुरूआती बयान है -- आवेशभरा, जिसका उतनी ही कुशलता से इस्तेमाल मिन्हाज असद ने अपने नाट्य निर्देशन में किया है और दर्शकों की ज़बरदस्त तालियां बटोरी है.
हिंदुस्तान के भारत और पाकिस्तान के बीच विभाजन की निरर्थकता को दिखाने का मंटो का अपना अंदाज़ है, जो पागलखाने में पागलों के अपने तर्क में दिखता है -- " सियालकोट पहले हिंदुस्तान में होता था, पर अब सुना है कि पाकिस्तान में है -- क्या पता कि लाहौर, जो आज पाकिस्तान में है, कल हिंदुस्तान में चला जाएं -- या सारा हिंदुस्तान ही पाकिस्तान बन जाएं --".
इतिहास गवाह है कि विभाजन के पहले का हिंदुस्तान और आज़ादी के बाद का भारत, सिरफिरों और फिरकापरस्तों के जाल में फंसकर पाकिस्तान बनते जा रहा है. आज भारत का इतिहास भिवंडी से लेकर मुजफ्फरनगर तक दंगों का, मुंबई, गोधरा और गुजरात के कत्ले-आम का, अशांत कश्मीर का, बाबरी मस्ज़िद के विध्वंस का और नफरत के ज़हरीले वातावरण का भारत है. हिन्दू और मुस्लिम दोनों ओर के साम्प्रदायिक पक्षों ने धर्म-निरपेक्षता को कमज़ोर करने का काम किया है और धर्म के नाम पर देश की राजनीति को हांकने की कोशिश कर रहे हैं. मंटो दोनों तरह के फिरकापरस्त जुनून के खिलाफ आज भी दीवार बनकर खड़े हैं.
मंटो खुद भी दो बार पागलखाने में दाखिल हो चुके थे. इसलिए पागलों की ' असभ्य मानवीयता ' और शरीफों की ' सभ्य पाशविकता ' के बीच वे अंतर अच्छे-से कर सकते थे. इसलिए मंटो की जुबानी ' टोबा टेकसिंह ' बोल रहे हों या ' टोबा टेकसिंह ' की जुबानी मंटो --यह भारत और पाकिस्तान दोनों के आम आदमी की कहानी है. ' टोबा टेकसिंह ' की मौत हिंदुस्तान के भारत और पाकिस्तान में विभाजन का तीखा नकार है. ' नो मैंस लैंड ' वह जगह है, जहां टोबा टेकसिंह चीखते हुए पछाड़ खाकर गिरता है. बकौल नरेन्द्र मोहन, उसकी चीख के साथ दो-राष्ट्र का सिद्धांत बेदम हो जाता है. ...यह चीख अपने ही घेरे में दुबके और सहमे व्यक्ति की नहीं है. उस व्यक्ति की है, जो घेरे से बाहर आने के लिए, अपने व्यक्तित्व को कई संदर्भों और अर्थों में पहचानने की कोशिश करता है.' (मंटो और विभाजन)
यह मंटो का ट्रीटमेंट है -- विभाजन के बाद बने मनोविज्ञान को रेखांकित करता हुआ. मिन्हाज़ असद ने न केवल इस ट्रीटमेंट के साथ मंटो को उतारा है, बल्कि विभाजन के मर्म, उसकी त्रासदी और पागलपन को भी पूरी शिद्दत से पेश किया है. नज़ीर अकबराबादी के गीत को अपने संगीत में आबिद अली ने ढालकर इस मंचन को बहुत ज्यादा प्रभावी बनाया है, सब कलाकारों के अभिनय की तारीफ़ तो की ही जानी चाहिए, खासकर काशी नायक (बिशन सिंह), करण खान (मलंग), नितेश लहरी (पागल), अंशु दास (रूप कौर), शेखर नाग (फिरतू), टेसू डोंगरे (पागल मौलवी), मो. ग़ालिब (बन्ने मियां), गौरव मिश्र (हवलदार), अमित मिश्र (वकील) की भूमिकाओं की.
कुल मिलाकर, इप्टा के कुछ माह पहले हुए राज्य सम्मलेन में जो सांगठनिक बदलाव हुए, मंच पर उसका असर भी दिखने लगा है, इप्टा की रंग परंपरा की प्रस्तुति -- ' बाकी सब खैरियत है ' के रूप में.
(लेखक की टिप्पणी -- बतौर एक दर्शक ही) 

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