Saturday 25 July 2015

दो बजट, एक दिशा...




मोदी सरकार द्वारा पेश रेल बजट व केन्द्रीय बजट को बहुतों ने ‘दिशाहीन’ करार दिया है—खासकर संप्रग से जुड़े दलों ने. लेकिन इन दोनों बजटों की दिशा बहुत ही स्पष्ट है और पूर्ववर्ती कांग्रेस-नीत सरकार की नीतियों की संगति में ही है – और वह है निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण की दिशा में. इस नीतिगत दिशा को वामपंथ ने खासतौर से रेखांकित किया है और इसीलिए मोदी सरकार को संप्रग-2 की सरकार का विस्तार भी कहा जा रहा है.

दोनों बजटों के तमाम ब्यौरे अब पूरी तरह से उजागर हो चुके हैं. बजट का मकसद केवल आय-व्यय का लेखा-जोखा रखना भर नहीं होता, बल्कि मुख्य मकसद तो यह बताना होता है कि राजकोष में आ रही आय का पुनर्वितरण किस तरह से किया जा रहा है. भारत जैसे विकासशील देश में, जो प्राकृतिक संसाधनों तथा मानवीय क्षमता से भरपूर है, लेकिन जहां गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा जैसी सामाजिक बीमारियों की जड़ें बहुत गहरी है, जहां आर्थिक असमानता बड़े पैमाने पर मौजूद है और इन बीमारियों व असमानता से पैदा हो रही चुनौती पहले के किसी भी समय के मुकाबले बहुत बड़ी है, आय का पुनर्वितरण ही बजट का मुख्य मकसद हो सकता है. इस नज़रिए से ये बजट पूर्ववर्ती सरकार की नीतिगत दिशा को ही बड़ी कठोरता से आगे बढ़ाती है, जबकि इस दिशा को संघ-भाजपा ने अपने अभियान में देश की रूग्णता के लिए जिम्मेदार ठहराया था.

‘पेट पर बेल्ट कसने’ का आह्वान और ‘देशहित में कठोर और कड़वे फैसले’ की बात करना हमारे देश के पूंजीपति-भूस्वामी शासक वर्ग की धूर्त चाल है. इन तर्कों को केंद्र में सत्तासीन हर पार्टी बखानती रही है. अटल सरकार ने भी ऐसे ही तर्क सामने रखे थे, मनमोहनसिंह ने भी यही किया था और अब इन्हीं धूर्त तर्कों को मोदी दुहरा रहे है. स्पष्ट है कि यदि आप देश के हितों को अम्बानी-अडानी-टाटा के हितों से एकमेक करते है, तो कठोर और कडवे फैसले उस बहुसंख्यक जनता के लिए ही होंगे, जो दिन-रात की मेहनत के बाद भी अपना पेट भरने में अक्षम है, लेकिन फिर भी बेल्ट उसी के पेट पर कसी जा रही होगी. दुर्भाग्य से ऐसा ही है.

वाकई में भाजपा सरकार देश की चिंता में दुबला रही है. जो काम पिछले दस वर्षों में करने का साहस कांग्रेस चाहते हुए भी नहीं कर सकी, वह काम डेढ़ महीने की मोदी सरकार ने कर दिखाया. ‘स्वदेशी’ का जाप करने वाली संघ-भाजपा ने रक्षा जैसा संवेदनशील क्षेत्र भी नहीं छोड़ा और 100% प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को मंजूरी दे दी. रेल और बीमा में तो एफ डी आई आएगी ही. अब सार्वजनिक बैंकों के शेयरों को बेचकर भी सरकारी घाटे की प्रतिपूर्ति की जाएगी और इस प्रकार बैंकों पर सरकारी नियंत्रण तो ढीला किया ही जायेगा, पिछले दरवाजे से उसके निजीकरण का रास्ता भी साफ किया जायेगा.

लेकिन एफ डी आई और निजीकरण की लहर पर सवार ये सरकार हमारी अर्थव्यवस्था में कितनी विदेशी मुद्रा का प्रवाह करवा पायेगी, इस बारे में बजट चुप है और अतीत इतना मुखर कि ऐसे कदमों से हमारी अर्थव्यवस्था को कभी कोई ‘संजीवनी’ नहीं मिली. उलटे विदेशी पूंजी की सट्टाबाजारी ने देश की अर्थव्यवस्था का बेड़ा गर्क़ ही किया है, उसे कमजोर व अस्थिर ही किया है. अब हमारे देश के बैंकों से ये आशा नहीं की जानी चाहिए कि विश्व अर्थव्यवस्था के झटकों से वह इस देश की अर्थव्यवस्था को बचा लेगी.

लगभग 1.64 लाख करोड़ रूपये की कुल कमाई वाले रेलवे के पास 350 से अधिक परियोजनाएं लंबित है, जिसके लिए 1.82 लाख करोड़ रूपये की जरूरत है. ये परियोजनाएं चाहे किसी भी सरकार के समय बनी हो, आम जनता की यात्रा-सुविधाएं, सुरक्षा तथा संरक्षा से जुड़ी है.जबकि रेलवे की आय का 94% इसके संचालन में ही व्यय हो रहा है, रेलवे की बचत से ही इसे पूरा करने जाएँ, तो कम-से-कम 20 साल लगेंगे और तब तक हमें किसी अन्य परियोजना की परिकल्पना भी नहीं करनी चाहिए. लेकिन यदि आपके पास रेलवे में निवेश के स्रोत है, तो हमारी प्राथमिकता इन परियोजनाओं को पूरा करने की ही हो सकती है. लेकिन मोदी सरकार के लिए ‘देशहित’ इसमें निहित है कि रेल क्षेत्र में जिस विदेशी निवेश को लाया जा रहा है, उसके जरिये 60000 करोड़ रूपये की लागत वाली एक ‘बुलेट ट्रेन’ चलाई जाये!...और वे इसकी लागत उस आम जनता से वसूल करेंगे, जो सपने में भी ऐसी ट्रेनों में पैर नहीं रख सकती. इस सरकार के लिए ‘देशहित’ इसी में है कि खटारा ट्रेनों में झूलते-लटकते-मरते बढ़े किरायों के साथ सफ़र करें.

लगभग 18 लाख करोड़ रूपयों के आकार वाले केन्द्रीय बजट में विभिन्न मदों पर चना-मुर्रा के समान 50 करोड़, 100 करोड़ या 200 करोड़ रूपयों के आबंटन से यह तो साफ है कि सरदार पटेल की मूर्ति लगाने को छोड़कर और कुछ नहीं हो पायेगा. गाँवों को 24 घंटे बिजली आपूर्ति, खाद्यान्न उत्पादन की क्षमता बढ़ाने, शहरी महिलाओं की सुरक्षा करने, खेलों को प्रोत्साहित करने, लड़कियों को पढ़ाने, जलवायु परिवर्तन से होने वाली समस्याओ से निपटने – आदि के तमाम दावें थोथे वादें बनकर रह जाने वाले हैं. ‘देशहित’ में जनता को अभी गरीबी, बेरोज़गारी, अशिक्षा, भुखमरी से निजात पाने और अपने जल, जंगल, जमीन व खनिज के बल पर ‘स्वदेशी विकास’ का सपना देखने को तिलांजलि दे देनी चाहिए. ‘देशहित’ में जरूरी है अभी उद्योगों का विकास -—और इसके लिए फिर से सेज को पुनर्जीवित किया जा रहा है: भूमि अधिग्रहण कानून, पर्यावरण कानूनों आदिवासी वनाधिकार कानून के प्रावधानों को कमज़ोर करके. इसके लिए मोदी सरकार के पास नए उद्योगों के लिए 10000 करोड़ रूपयों का फंड है, तो बिजली कंपनियों के लिए 10 साल तक ‘हॉलिडे टैक्स’ का उपहार भी. जिस काले धन को चुनावी मुद्दा बनाया गया था, उस पर अब संघ-भाजपा-मोदी खामोश है. लेकिन कांग्रेसी राज के समान ही पूंजीपतियों को टैक्स में भारी राहत जारी है और इस राहत भरे टैक्स में भी बिना अदा किये गए टैक्स की वसूली की कोई योजना नहीं है. यही राशि 10 लाख करोड़ रूपयों से ऊपर बैठती है.

18 लाख करोड़ के बजट में यदि 10 लाख करोड़ रूपये ‘देशहित’ में पूंजीपतियों को सौंप दिए जाएँ—-चाहे उपहार समझकर या फिर सब्सिडी कहकर—-तो खजाना तो खाली रहना ही है. आम जनता के लिए ये खजाना कांग्रेसी राज में भी खाली था, संघ-भाजपा के राज में भी खाली ही रहेगा.

इसीलिए जब इस वर्ष मानसून अनुकूल नहीं है, तब भी लोगों की रोजी-रोटी और अकाल से निपटने की समस्या इस सरकार की प्राथमिकता में नहीं है. मनरेगा जैसे कानून, जिसकी पूरी दुनिया में प्रशंसा हुई है -- बावजूद इसके कि इसमें तमाम खामियां हैं और क्रियान्वयन लचर – के खिलाफ इस सरकार का दृष्टिकोण सामने आ चुका है. आने वाले वर्षों में निश्चित ही इसकी वैधानिकता को ख़त्म करने का प्रयास किया जायेगा. लेकिन इस बार के बजट में भी मात्र 33990 करोड़ रूपये आबंटित किये गए हैं, पिछले वर्ष के बजट आबंटन से मात्र 990 करोड़ रूपये ज्यादा और मुद्रास्फीति के मद्देनज़र वास्तविक आबंटन पिछले बार से कम. सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों को ध्यान में रखते हुए, यदि औसत मजदूरी 200 रूपये प्रतिदिन ही मानी जाएँ, तो भी इस बजट आबंटन से 100 करोड़ मानव दिवस से ज्यादा रोजगार का सृजन नहीं हो सकता, जबकि वर्ष 2009-10 में भी 283 करोड़ श्रम-दिवसों (मनरेगा के इतिहास में सबसे ज्यादा) का सृजन किया गया था. स्पष्ट है की इस अकाल-वर्ष में पिछले वर्ष के मुकाबले बहुत कम रोजगार का ही सृजन होने जा रहा है.

योजना आयोग के खिलाफ भी मोदी सरकार का रूख स्पष्ट है और इसे ‘अलविदा’ कहने की तैयारी की जा रही है. केन्द्रीय बजट में भी इसकी झलक स्पष्ट दिखती है. इस देश के संतुलित विकास, सामाजिक न्याय, आर्थिक समानता के लिए, केन्द्र-राज्यों के बीच संसाधनों व आय के वितरण व संघीय ढांचे की रक्षा की दिशा में ‘योजना’ की परिकल्पना बहुत ही महत्वपूर्ण है. लेकिन कुल बजट आबंटन में आयोजना व्यय का जो हिस्सा पिछले वर्ष 35% था, वह इस बार के बजट में घटकर 32% रह गया है. आने वाले वर्षों में इसमें तेजी से गिरावट होगी और ‘नियोजित विकास’ शोध की विषय-वस्तु बनने जा रही है. इसी प्रकार इस सरकार का अल्प-संख्यक विरोधी रूख भी स्पष्ट झलकता है. संप्रग सरकार ने पिछले वर्ष अल्पसंख्यकों की शिक्षा के लिए जहां 150 करोड़ रूपये आबंटित किये थे, वहीँ संघ-भाजपा सरकार ने अल्पसंख्यकों की शिक्षा को ‘मदरसा आधुनिकीकरण’ तक सीमित कर दिया है और मात्र 100 करोड़ रूपये ही आबंटित किये हैं.

...और यह तो सबको मालूम है कि बजट में जिस मद में जितनी राशि का प्रावधान किया जाता है, वास्तव में उतने का कभी उपयोग नहीं होता. कुल मिलाकर, ‘नियोजित विकास’ की उपेक्षा या विदाई का अर्थ है--- आम जनता की बुनियादी समस्याओं—पेयजल, आवास, रोजगार, सिंचाई—की अनदेखी और तिरस्कार. इस ‘विदाई’ का शोक-गीत अभी लिखा जाना बाकी है.

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