Saturday 25 July 2015

वादे हैं, वादों का क्या...


वादा तो धान के एक-एक दाने को खरीदने का था, वादा तो न्यूनतम समर्थन मूल्य 2100 रूपये प्रति क्विंटल और ऊपर से 300 रूपये प्रति क्विंटल बोनस देने का था. वादा तो हमारे खेतों को सही कीमत पर खाद-बीज-बिजली-पानी-दवाई देने का भी था. लेकिन ये चुनावी वादे ही तो थे. लोकसभा के चुनावों में फेंकू महाराज ने भी किसानों के लिए घूम-घूमकर आंसू बहाए थे. लेकिन वो भी चुनावी आंसू ही तो थे. ऐसे वादों और आंसूओं का चुनावों के बाद कोई अर्थ भी होता है, जिसकी परवाह की जाएँ ?
ऐसे वादों का कोई अर्थ होता, तो वादे तो अटलबिहारी की सरकार ने भी किये थे. उन्होंने ही अपने वादे को कहां याद रखा था ? उन्हें ही कौन-सी परवाह थी किसानों की कि मोदी ही अपने वादों की परवाह करें ? यदि ऐसा ही होता, तो अटलबिहारी कृषि उत्पादों के आयात-निर्यात पर लगे मात्रात्मक प्रतिबन्ध को नहीं हटाते और देश की कृषि-व्यवस्था को चौपट करने के लिए धनी देशों के आगे घुटने नहीं टेकते. यदि ऐसा ही होता, तो अकाल से मर रही जनता को सस्ते में अनाज आबंटित करने की जगह सुअरों को खिलाने के लिए 3 रूपये किलो की दर से अमेरिका को गेहूं नहीं बेचते. उन्हें ही यदि जनता की परवाह होती, तो क्यों वे खाद-बीज-बिजली-पानी-दवाई की सब्सिडी में कटौती करके उन्हें महंगा करते ? जब अटल बिहारी ने ही आम जनता और किसानों की नहीं सोची, तो फिर से मोदी के संघ-भाजपा को चुनकर आज उससे अपना वादा पूरा करने की मांग जनता क्यों कर रही हैं ? आम जनता तो सरासर राजनैतिक बेईमानी कर रही है !! इस जनता में कुछ ' नैतिकता ' भी बची है या नहीं ?
तो मित्रों, मोदी भी तो अटल बिहारी और दिवंगत कांग्रेस सरकार के नक़्शे-कदमों पर ही चल रहे हैं. यदि किसानों का पूरा अनाज सरकार खरीद लें, तो अमेरिकी अनाज के लिए देश में बाज़ार कहां से बनेगा ? यदि किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य मिल जाएँ, तो मगरमच्छ अनाज-व्यापारी जिंदा कैसे रहेंगे ? यदि वायदा-व्यापार पर रोक लग जाएँ, तो अनाज-सटोरियों का क्या होगा ? यदि किसानों के लिए सही कीमत पर खाद-बीज-दवाई का इंतजाम सरकार ही कर दें, तो संघी गिरोह को चंदा देने वाले कालाबाजारिये कहां से कमाएंगे ?
इस गिरोह को तो सबको साथ लेकर चलना है. किसानों को भी और हरामखोरों को भी. इस गिरोह के पास सबको देने के लिए कुछ-न-कुछ है. किसानों के लिए वादें हैं, तो हरामखोरों के लिए तिजोरी भरने के लिए रास्ते. देश को देने के लिए कंगाली है, तो अमेरिका को देने के लिए पूरा देश.
तो मित्रों, मोदी और रमन की नीयत पर कोई सवाल खड़े ना करो यार. उनसे मत पूछो कि किसानों की जमीन के पंजीयन का लफड़ा क्यों ? क्या गांव के पटवारी के पास जमीन का रिकॉर्ड नहीं है ? उनसे मत पूछो कि तुम्हारे मोदी ने कृषि लागत और मूल्य निर्धारण आयोग की सिफारिशें ठुकराकर किसानों को फसल के लाभकारी मूल्य से क्यों वंचित कर दिया और रमन सरकार ने चूं तक क्यों नहीं की ? मत पूछो यारों रमन से कि पिछले साल के बोनस के पूरे पैसे अभी तक क्यों नहीं मिले और इस साल की बोनस घोषणा पर अब तक चुप्पी क्यों ? मत पूछो कि किसानों को दी जाने वाली बिजली महंगी और कारखानेदारों को दी जाने वाली बिजली सस्ती क्यों? मत पूछो कि पिछले साल 80 लाख टन धान खरीदी का दावा करने वाली रमन सरकार के किसने और क्यों हाथ बांध दिए हैं कि इस साल वह 50 लाख टन धान भी खरीदने के लिए तैयार नहीं. ये भी मत पूछो कि सरकार अनाज खरीदी इसी तरह ख़त्म कर देगी, तो इस देश की खाद्यान्न सुरक्षा का क्या होगा ? तब क्या इस देश की जनता का पेट भरने के लिए अमेरिका आएगा ?
.... और स्वामीनाथन के राष्ट्रीय किसान आयोग की सिफारिशों को लागू करने के बारे में तो पूछो ही मत. इस देश की राष्ट्रभक्त सरकार को आयोगों से सख्त चिढ़ है. फिर चाहे वो योजना आयोग हो या स्वामीनाथन आयोग. और जिस बात से सरकार यानि संघी गिरोह को चिढ़ हो, उस बात से चिढना हर राष्ट्रभक्त नागरिक का परम कर्तव्य है ...वरना मुठभेड़ों में आतंकवादी या नक्सलवादी बताकर मारे जाओगे !!
तो फेंकू महाराज और लबरे रमनजी, तुम दोनों मिलकर हमारी सब्सिडी में कटौती करो, हमें कुछ नहीं कहना. तुम दोनों हमारे पेट पर लात मारो, तो हम खुश. तुम हमारा गला काटो, तो और-और ज्यादा खुश. आखिर देश के विकास का मामला है. और जो देश के विकास के साथ नहीं है, वो सबके विकास के साथ नहीं है. जो सबके विकास के साथ नहीं है, वो अमेरिका के साथ नहीं हैं. जो अमेरिका और संघी गिरोह के साथ नहीं हैं, वो या तो आतंकवादी है या नक्सली....और उसका हश्र तय है. इसके लिए गुजरात या बस्तर जाने की जरूरत नहीं हैं.

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