Wednesday 8 July 2015

मिर्जा मसूद की ‘मिट्टी की गाड़ी’

मिर्जा मसूद की ‘मिट्टी की गाड़ी’
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शूद्रक की ‘मृच्छकटिकम्’ एक कालजयी रचना है। शायद यही वह संस्कृत रंग है, जिसे हिन्दी रंगमंच पर सबसे ज्यादा बार खेला गया है। कोई भी नया या पुराना निर्देशक इस रंग के मोह से छूट नहीं पाया। हबीब तनवीर ने ‘मिट्टी की गाड़ी’ के नाम से इसे अपने तरीके से खेला, तो संजय उपाध्याय ने भी इसमें अपना नया रंग भरा। इन दोनों निर्देशकों की खूबी यह रही कि उन्होंने इस रचना का ‘पुनर्पाठ’ किया और मंच पर ‘पुनर्सृजन’। हर कालजयी रचना नई सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक परिस्थितियों में ‘पुनर्पाठ’ और ‘पुनर्सृजन’ की मांग करती है और हर निर्देशक में ऐसा साहस भी नहीं होता कि इस मांग को पूरा करे। इसके अभाव में कोई कालजयी रचना एक साधारण रंग प्रस्तुति भर रह जाती है। पिछले वर्ष इप्टा के नाट्य समारोह में रामजीबाली के निर्देशन में मंचित ‘चारुदत्तम’ और कल मिर्जा मसूद के निर्देशन में खेली गयी ‘मिट्टी की गाड़ी’ इसी साधारणता की शिकार हुई है।

प्रेम हमारी कुदरत का एक प्राकृतिक रंग है। लेकिन हमारे साहित्य में यह प्रेम बहुतायत में राजमहलों तक ही कैद है। शूद्रक की खासियत यह है कि वह प्रेम के इस रंग को अट्टालिकाओं से मुक्त करके जनसाधारण की झोपड़ियों तक लाते हैं। लेकिन ‘मृच्छकटिकम’ केवल निर्धन चारूदत्त और गणिका वसंतसेना की प्रेम कहानी भर नहीं है, इसमें ‘निरंकुश सत्ता के एक असंवैधानिक केन्द्र’ के रुप में राजा के साले शाकार की उपस्थिति भी है, राजा का अत्याचार और भ्रष्ट तंत्र भी है और अत्याचारी राजतंत्र के खिलाफ एक सफल तख्तापलट भी। संस्कृत शास्त्र में एक सफल तख्तापलट के रंग, और वह भी जनसाधारण के विद्रोह के जरिये, बहुत कम देखने को मिलते हैं। प्रेम और विद्रोह के इस ताने-बाने ने ही ‘मृच्छकटिकम’ को कालजयी बनाया है।

शूद्रक ने जब ‘मृच्छकटिकम’ की रचना की थी, तो वह राजतंत्र का सामंती युग था। आज हम पूंजीवादी जनतंत्र में रह रहे हैं, जहां राजसत्ता पहले से ज्यादा निरंकुश और बलशाली है। आज केन्द्र की सत्ता को राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ नाम की संस्था अपने बहुविषपायी भुजाओं से निर्देशित कर रही है और वह इसे छुपाने की भी कोशिश नहीं करती। यह सत्ता अपने संसदीय बहुमत के अहंकार से बहुमत जनसाधारण की आकांक्षाओं को दबाने का काम कर रही है और इस दमन को आसान बनाने के लिए उनके बीच सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का खेल भी खेल रही है। यह राजतंत्र की नहीं, पूंजी की निरंकुशता है, जो अपनी शोषण की सत्ता को जमाये रखने के लिए देश की सीमाओं से बाहर बहुराष्ट्रीय कार्पोरेटों के साथ गले मिल रही है और देशहित और जनहित के खिलाफ समझौते कर रही है। इसे किसी पुराने तरीके के जनविद्रोह के जरिये पलटा नहीं जा सकता। इस तख्तापलट के कमांडर, इसकी सेना, इसके हथियार, लड़ाई का मैदान, इसके विचार- सभी अलग तरह के होंगे। लेकिन इस सबके केन्द्र में वह जनसाधारण ही होगा, जो ‘इतिहास का निर्माता’ है। ‘मृच्छकटिकम’ का आधुनिक संदर्भ यही हो सकता है कि आज पूंजी की निरंकुशता, इसके अत्याचार और विभाजनकारी षड़यंत्रों के खिलाफ आम जनता को एकजुट किया जाये और एक वर्गविहीन, शोषणविहीन समाज की स्थापना की आधुनिक लड़ाई को आगे बढ़ाया जाये।

मिर्जा मसूद ‘मृच्छकटिकम’ का आधुनिक संदर्भ पेश करने का साहस नहीं कर पाये। यदि वह ऐसा साहस करते, जन साधारण के विद्रोह और तख्ता पलट के बाद शाकार को ‘जीवन दान’ नहीं मिलता। यह सभी जानते हैं कि फ्रांसीसी क्रांति के बाद राजा को गिलोटिन पर चढ़ा दिया गया था। लेकिन इस ‘जीवन दान’ के लिए मंच पर किसी गांधीवादी ‘हृदय परिवर्तन’ की उपस्थिति का आभास भी नहीं होता- तो सब कुछ के बाद जन साधारण के विद्रोह और तख्ता पलट का नकार और यथास्थिति को बनाये रखना ही है। यथास्थिति के खिलाफ लड़ने में ही किसी नाटक की सार्थकता खोजी जा सकती है।

जिन्होंने ‘मृच्छकटिकम’ पर आधारित दूसरे निर्देशकों की रंग प्रस्तुतियां देखी हैं, उन्हें यह रंग प्रस्तुति बहुत ही साधारण लगेगी- दिखे-दिखाये को फिर से दिखाने की कोशिश। जो रंगदर्शक पहली बार इस नाटक से रुबरू हो रहे थे, उनके रसास्वादन के लिए रंगों की कमी नहीं थी। डाॅ. जीवन यदु के गीतों ने रंग प्रभाव को सुगम और कर्णप्रिय बनाया, तो सुभाष धनकर के मेकअप में पात्रों का रंगाभिनय जमकर निखरा। हर्ष दुबे (चारूदत्त) वसंतसेना (संगीता निषाद), मैत्रेय (सिद्धार्थ मालवीय), मदनिका (मोना पवार) शाकार (तूफान वर्मा) आर्यक (अंकित चैबे), अधिकर्णिक (संतोष जैन) आदि के रंगाभिनय को सबने सराहा। अधिकांश नये कलाकारों के साथ 20-25 लोगों की टीम को साधना मिर्जा साहब के बस की ही बात हो सकती है। आखिरकार, नाट्य कर्म एक सामूहिक कर्म है और सामूहिकता को अपने पूरे रंग में मंच पर उपस्थित करना आसान बात नहीं होती। 

(लेखक की टिप्पणी- बतौर एक दर्शक ही)

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