Saturday 25 July 2015

योगदान सरकारी क्षेत्र का, लेकिन तरजीह निजी क्षेत्र को...


रिज़र्व बैंक की रिपोर्ट आ चुकी है. 1995-96 में सरकारी बैंकों का कुल लाभ 39% था, जो 2011-12 में बढ़कर 61% पहुँच गया. ये बैंक अपनी कुल जमा का 70% ऋणों के रूप में दे रही हैं. जबकि निजी बैंकों का जोर केवल अपनी संपदा और शेयरों के रिटर्न पर ही रहा है, जो सरकारी बैंकों से कहीं ज्यादा है. इस रिपोर्ट से स्पष्ट है कि सरकारी क्षेत्र के बैंकों का सरोकार आज भी आम जनता से है, जबकि निजी क्षेत्र के बैंकों की दिलचस्पी केवल अपनी लागत को वसूलने में ही है.
इसी बीच सार्वजनिक क्षेत्रों के उपक्रमों के संगठन स्टैंडिंग कांफ्रेंस ऑफ़ पब्लिक इंटरप्राइसेस की ताजा रिपोर्ट आई है, जिसके अनुसार इस देश के 229 सार्वजनिक उपक्रमों में से 149 उपक्रम लाभ अर्जित कर रहे हैं, जबकि महज 79 घाटे में चल रही है. एक कंपनी न लाभ, न नुकसान के आधार पर चल रही है. जबकि निजी क्षेत्र की अधिकाँश कम्पनियाँ अपने घाटे का रोना रो रही हैं और भारी-भरकम सब्सिडी की मांग कर रही है.
तो स्पष्ट है कि देश की अर्थव्यवस्था में आज भी सबसे ज्यादा योगदान सरकारी क्षेत्र का ही है, लेकिन बड़े ही सुनियोजित तरीके से इसे बदनाम करने और घाटे में डालने की कोशिशें जारी है और निजी क्षेत्र के विकास पर, और उसमें भी कार्पोरेट क्षेत्र के विकास पर, जोर दिया जा रहा है. निजीकरण के इसी मन्त्र को फूंकते हुए बैंक-बीमा के क्षेत्र में एफडीआई (प्रत्यक्ष विदेशी निवेश) लाने और सार्वजनिक उपक्रमों के शेयरों का विनिवेश करने की मुहिम चलाई जा रही है. इससे किसका विकास और भला होगा, मोदी सरकार भी अच्छी तरह जानती है और वह देश की जनता की कीमत पर उन्हीं देशी-विदेशी पूंजीपतियों का भला करना चाहती है, जो हमारे देश की अर्थव्यवस्था को अपनी पूंजी का गुलाम बनाना चाह रहे हैं. पूंजीपतियों-कार्पोरेटों के ' बड़े गुलाम ' से भी यह बात छिपी हुई नहीं है.
तो फेंकू महाराज, ' जनसेवा ' का कितना भी दिखावा कर लो, तुम्हारी नीतियों की हकीकत इस देश की जनता से छुपी हुई नहीं हैं.

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