Sunday 9 August 2015

रायपुर इप्टा का 17वां मुक्तिबोध राष्ट्रीय नाट्य समारोह : मुक्तिबोध और इप्टा के मेल की रंग-भाषा



मुक्तिबोध हिन्दी और छत्तीसगढ़ के एक ऐसे कवि हैं, जो अपनी विशिष्ट काव्य-भाषा व वामपंथी काव्य-चेतना के लिए जाने जाते हैं। उनकी याद में रायपुर इप्टा द्वारा आयोजित नाट्य समारोह ने संस्कृति के क्षेत्र में एक ऐसे रंग-समारोह का रुप ले लिया है, जो अपने विशिष्ट रंग-हस्तक्षेप के लिए अब जाना जाता हैं। मुक्तिबोध और इप्टा का यह मिलन भाषा को रंग से जोड़ता है और एक नयी रंग-भाषा का सृजन करता है। इस बार 8-11 फरवरी, 2014 तक आयोजित इस 17वें समारोह में पूर्व-रंग भी शामिल था, जो मुक्तिबोध की कविताओं को संगीत में ढालकर भाषा को रंग से जोड़ रहा था और एक नयी रंग-चेतना पैदा कर रहा था। इस प्रकार रंग और भाषा मिलकर संस्कृति के क्षेत्र में एक सार्थक हस्तक्षेप कर रही थी।
रायपुर इप्टा के 17वें मुक्तिबोध राष्ट्रीय नाट्य समारोह की शुरूआत यदि विजय तेंदुलकर के मराठी नाटक ‘अशी पाखरे येती’ (हिन्दी अनुवाद ‘पंछी ऐसे आते हैं’- सरोजिनी वर्मा) से हुई है, तो यह इप्टा के व्यापक वैचारिक सरोकार को ही दिखाता है। तेंदुलकर ने यह नाटक काफी समय पहले 70 के दशक में लिखा था, लेकिन तब से सामाजिक-राजनैतिक मूल्यों में और ज्यादा गिरावट आई है। स्त्री के प्रति सामंती सोच में आज भी कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। आज भी स्त्री प्रेम के लिए स्वतंत्र नहीं है, उस पर ‘खाप’ पंचायतों और‘ काली टोपी, खाकी पैंट’ का जबरदस्त पहरा है। वेंलेन्टाइन-डे पर मोरल पुलिसिंग और इज्ज़त के नाम पर हत्याओं के वीभत्स रूप सामने आ रहे हैं और देश के गली-कूचों में ‘निर्भया’ प्रकरण हो रहे हैं। इसीलिए यह पुराना नाटक आज भी जिंदा व सामयिक है।
विजय तेंदुलकर का रंग-संसार बहुत व्यापक है और रंग-छवियों को गढ़ने में उन्हें महारत हासिल है। इन छवियों में हमारी अपनी जिंदगी के सभी रंग घुलेहोते हैं। रंगों का ये समावेशन एक ऐसी दुनिया का सृजन करता है, जिससे रंग-दर्शक शीघ्र ही अपना तादात्म्य स्थापित कर लेते हैं। यह आत्मीयता धीरे से दर्शकों को बौद्धिक विमर्श की ओर धकेल देती है-- इस विमर्श में समाज, राजनीति, संस्कृति सभी कुछ शामिल होते हैं और रंग-दर्शकों के अवचेतन पर प्रहार करते हैं। इस प्रहार से एक ऐसी सामाजिक-राजनैतिक चेतना का निर्माण होता है, जो समाज और जीवन को आगे बढ़ाता है और सामाजिक-सांस्कृतिक प्रक्रिया को परिष्कृत करता है। तेंदुलकर सभ्यता और संस्कृति की खाल ओढ़े समाज की बेरहमी से चीर-फाड़ करते हैं और रंगमंच को प्रगतिशील सामाजिक परिवर्तन के लिए वैचारिक द्वंद्व का मंच बना देते हैं। वे समाज के साथ राजनीति के संबंधों को अनावृत्त करते हैं और इस मायने में वे महज़ नाटक रचते-गढ़ते नहीं हैं, बल्कि नाटकीय ढंग से समाज-संस्कृति के क्षेत्र में हस्तक्षेप करते हैं। इस प्रक्रिया को बाधित करने वाली दक्षिणपंथी-पुरातनपंथी सोच को यह हस्तक्षेप निश्चित ही रास नहीं आयेगा।
विजय तेंदुलकर का यह नाटक लगभग तीन घंटे का है और इसे सामयिक-संपादित कर डेढ़ घंटे का बनाने में निर्देशक मिनहाज़ असद की अथक मेहनत झलकती है। इसीलिए इस कसे हुए नाटक में झोल खोजना आसान नहीं है। रंगमंच पर सामाजिक अंतरसंबंधों से उपजा वैचारिक द्वंद्व शुरू से अंत तक बना रहा। इस रंग-तनाव ने रंग-दर्शकों की अंतर्चेतना को सोने नहीं दिया और दर्शकों की पूरा सहानुभूति नायिका सरू के साथ खड़ी हो गई। लेकिन सरू में जो अरूण आत्मविश्वास जगाता है, उसकी आंतरिक सुंदरता से उसे परीचित कराता है, स्त्री प्रेम के अधिकार की चेतना जगाता है और स्त्री-स्वतंत्रता का उद्घोष करता है, वही अरूण पुरूषवादी मानसिकता से मुक्त नहीं है और सरू के जीवन से पलायन कर जाता है। सरू के जीवन में प्रेम के लिए फिर वही विश्वास राव बच जाता है, जिसे उसने ठुकरा दिया था और फिर से प्रेम मां-बाप का एक थोपा हुआ बंधन बन जाता है।
आज का सामाजिक यथार्थ भी लगभग यही है। जवान बेटी की शादी न हो पाने की मां-बाप की चिंता और किसी भी तरह उसे घर से विदा करने का दबाव, सरू का विश्वास राव को नापसंद करना और अरूण के प्रति चाहत का इज़हार, फिर बाप-बेटा की प्रताड़ना और इस सबके बीच मां की विवशता, अंत में मां-बाप का अरूण के लिए तैयार होना, लेकिन उसका पलायन-- यह सब मिलकर एक ऐसी रंग-सृष्टि का निर्माण करते हैं, जिसके साथ दर्शक स्वयं को मंचस्थ पाता है। इस सबके बीच बण्डा की यह एकाकी चिंता कि सरू की शादी के बिना उसकी शादी कैसे हो पाएगी और इस चिंता को वह अपनी तथाकथित हिन्दू संस्कृति के गुणगान के जरिये औचित्य प्रदान करता है। मिनहाज़ असद ने पूरे नाटक के एक-एक फ्रेम को बड़ी ख्ूाबसूरती से गढ़ा-कसा है और निर्देशकीय कौशल का परिचय दिया है। पात्रों के अभिनय और मिनहाज़ के निर्देशन ने एक ऐसे रंगानुशासन का प्रभाव पैदा किया है, जो विजय तेंदुलकर के इस नाटक का पुनर्पाठ करता है। तेंदुलकर और मिनहाज़ की फ्रिक्वेंसी यहां पूरी तरह मैच करती है।
इस 6 पात्रीय नाटक में हर पात्र महत्वपूर्ण था और किसी की भी अनुपस्थिति से नाटक पूरा नहीं किया जा सकता था। इस नाटक के 4 पात्र सुनील तिवारी (अरूण), काशी नायक (अन्ना), संजय महानंद(बण्डा) तथा अंशु दास मानिकपुरी (सरू) तो सीधे छत्तीसगढ़ी सिनेमा से जुड़े हैं और सिनेमाई पोस्टरों में छाये रहते हैं। इन पोस्टरों से इप्टा-जैसे सांस्कृतिक सरोकारों के लिए उनका रंगमंच पर उतरना एक सुखद अनुभूति है और निश्चय ही सिनेमा के जरिये जो छाप वे नहीं छोड़ पाते, इस रंगमंच पर अपने अभिनय के जरिये उन्होंने छोड़ा है। सांस्कृतिक लठैतधारी (बण्डा) के रुप में संजय महानंद ने अपने बेहतरीन अभिनय की छाप छोड़ी है। नवीन त्रिवेदी जनसंचार के छात्र रहे हैं और रंगकर्म को यदि वे संवाद-संचार का माध्यम बना रहे हैं, तो उनका स्वागत ही किया जाना चाहिए। विश्वास राव के रूप में अपने छोटे से रोल में उन्होंने अच्छा अभिनय किया है। विनीता पराते अपेक्षाकृत एक नयी अभिनेत्री है और यह उनका चैथा नाटक ही है, लेकिन अपने अभिनय को उन्होंने और निखारा है। मां के चरित्र को उन्होंने सहज तरीके से जिया है। कुल मिलाकर, अभिनय और निर्देशन ने इस नाटक को यादगार बना दिया। असीम दत्ता और हरमीत सिंह जुनेजा ने नाटक के संगीत को तैयार किया था। सादगी भरे मंच को अरूण काठोटे ने तैयार किया था और युवा पात्रों को प्रौढ़ रुप देने का बेहतरीन काम सुभाष धनगर का था। प्रकाश व्यवस्था का काम बल्लू सिंह संधू ने बेहतरीन ढंग से संभाला।
समारोह के तीसरे दिन ‘विवेचना’, जबलपुर ने भी तेंदुलकर के नाटक ‘खामोश! अदालत जारी है’ का मंचन किया। इस नाटक का मंचन कई टीमों द्वारा रायपुर में हो चुका है, लेकिन निर्देशक विवके पांडे इसमें अपना रंग भरने में सफल रहे और कई बार देखे-सराहे जा चुके इस नाटक को प्रस्तुत कर एक बार फिर से उन्होंने सराहना बटोरी। विजय तेंदुलकर कोई क्लासिक नहीं रचते, लेकिन इस नाटक में हिंसा-प्रतिहिंसा का एक ऐसा खेल जरूर खेलते हैं कि सभ्यता की खाल ओढ़े वकील सुखात्मे (आशुतोष द्विवेदी), नाट्य मंडली के मालिक काशीकर (नवीन चैबे), उसकी पत्नी (अर्पणा शर्मा), सेवक बालू , सावंत (अमित निमजे), कार्णिक (सूरज राय), रोकड़े (मनीष तिवारी) और पोंछे (रविन्द्र मुर्हार) आदि सभी की परतें धीरे-धीरे खुल जाती है और उनका ओछापन तथा लघुता सबके सामने आ जाती है। पूरी थीम नाटक के अंदर नाटक की है। इस काल्पनिक नाटक में जिस मिस बेणारे (अलंकृति श्रीवास्तव) पर भ्रूण हत्या का आरोप लगाया जाता है, उसके खिलाफ फैसला दिया जाता है कि समाज व सभ्यता को कलंकित होने से बचाने के लिए वह अपने गर्भ में पल रहे भ्रूण को गिरा दे। इस प्रकार तेंदुलकर मनुष्य की पाशविक प्रवृत्ति को उजागर करते हैं। निर्देशन, संगीत, प्रकाश, अभिनय-- सब मिलाकर नाटक को बेहतरीन तरीके से आगे बढ़ाते हैं और पूरा नाटक रंग-दर्शकों की चेतना को झकझोरने में कामयाब होता है। मिस बेणारे की भूमिका में अलंकृति श्रीवास्तव के अभिनय को अलग से रेखांकित अवश्य करना चाहिए कि उन्होंने चरित्र के अंदर घुसकर अभिनय किया है और उनका अभिनय इतना बेहतरीन था कि नाटक समाप्त होने के बाद भी वे चारित्रिक अवस्था से बाहर नहीं आ पाई थीं। इतने संवेदनशील और विवादित विषय पर अभिनय के बल पर वे रंग-दर्शकों की सहानुभूति और समर्थन मिस बेणारे के लिए ले पाई। एक दूसरे दृष्टिकोंण से यह नाटक स्त्री देह की स्वतंत्रता, उसकी निजता और गरिमा तथा वर्तमान में साहित्य में चल रहे स्त्री विमर्श से भी जुड़ता है। अपने समय में तेंदुलकर ने भारतीय समाज में स्त्री की जिस स्थिति को रेखांकित किया था, ‘विवेचना’, जबलपुर ने उसे पुनः रेखांकित करने का सार्थक प्रयास किया।
इस समारोह का दूसरा दिन प्रोवीर गुहा के नाम था, जो अपना ‘अल्टरनेटिव लीविंग थियेटर लेकर आये थे। इस नाट्य दल ने उनके निर्देशन में ‘विषदकाल’ पेश किया। यह नाटक गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की रचना ‘विसर्जन’ पर आधारित है। इस नाटक को टैगोर ने अपने उपन्यास ‘राजश्री’ के आधार पर लिखा था। मूल कहानी बहुत ही सरल व मर्मस्पर्शी है। गोमती के किनारे एक छोटा सा गांव है त्रिपुरा। रघुपति इस गांव का पंडित है, जो लोगों को सुख-शांति के लिए पशु बलि व मानव बलि देने पर मजबूर करता है, अन्यथा गांव में अशांति और दुखों का पहाड़ टूटने का भय दिखाता है। इस बलि से गोमती लाल नदी में बदल जाती है। इस बलि प्रथा पर राजा रोक लगा देता है, इससे रघुपति बौखला जाता है और राजा की बलि लेने के लिए षड़यंत्र करता है। राजा का भाई अंत में अपना राजरक्त देता है इस शर्त के साथ कि आगे से कोई बलि नहीं ली जाएगी। टैगोर की यह कथा जितनी सरल है, इसका मंचन उतना ही कठिन। बंगाल में शंभु मित्र जैसे दिग्गज की प्रस्तुति भी फ्लाप हो गयी थी। लेकिन इस नाटक का आकर्षण इतना जबरदस्त है कि हर बांग्ला टीम इसे अवश्य ही खेलना चाहती है। प्रोवीर गुहा भी इस मोह को छोड़ नहीं पाये और ‘विषदकाल’ के रुप में इस नाटक को उन्होंने एक नयी रंग-सज्जा के साथ प्रस्तुत किया है। इप्टा के मंच पर यह उनकी 36वीं प्रस्तुति थी और निश्चित ही ‘विसर्जन’ को ‘विषदकाल’ के रुप में प्रस्तुत करने में वे बेहद सफल रहे। अपनी प्रस्तुति में उन्होंने प्रकाश, संगीत, नृत्य और देह भंगिमा का भरपूर उपयोग तो किया ही है, हिंसा के खिलाफ संदेश देते हुए उन्होंने इसे सामयिक बनाने की भी कोशिश की है। बंगाल में हो रहे खून-खराबे को भी उन्होंने स्लाइड के माध्यम से प्रस्तुत किया है, तो ‘हजार चैरासी की मां’ का जिक्र भी उनकी रंगमंचीय राजनीति का स्पष्ट था। प्रकाश व तकनीक के सामंजस्य से दृश्यांतरण को उन्होंने सहज संभव बनाया। अपनी प्रस्तुति में बंगाल के लोकरंग का उन्होंने बेहतरीन उपयोग किया। पात्रों के अभिनय में नुक्कड़ शैली स्पष्ट थी, जो प्रोवीर गुहा का स्वभाविक झुकाव है। मौन उन्हें बर्दाश्त नहीं है और रंगमंच शुरू से अंत तक संगीत से भरा रहा। इससे शोरगुल का प्रभाव भी पैदा हुआ, जो नाटक के दृश्य के सहज संपे्रषण में बाधक बना।
प्रोवीर गुहा बांग्ला रंगमंच के राजनैतिक रुप से जागरूक कार्यकर्ता हैं और उनका वामपंथी झुकाव स्पष्ट है। रंगमंच के क्षेत्र में वे उस रंगमंचीय सक्रियता में विश्वास करते हैं, जो दर्शकों के बीच मुद्दों को लाये और उन्हें उत्तेजित करे--इतना उत्तेजित करें कि वे दो ग्रुपों में बंट जायें और विवाद करें। इस विवाद के जरिये वे अपने रंग-दर्शकों से संवाद स्थापित करना चाहते हैं। रंगमंच पर यह उनका द्वंद्ववादी प्रयोग है। इस मायने में वे उस प्रायोगिक एवं व्यावहारिक रंगमंच में विश्वास करते हैं, जो समाज व समय के प्रति अपने को जिम्मेदार मानता है और खासकर हाशिये पर पड़े समुदायों, गांवों को, झुग्गियों को, फुटपाथियों को, बच्चों, बूढ़ों और महिलाओं को संबोधित करने को अपनी रंगमंचीय प्राथमिकता मानते हैं। वे रंगमंच के समस्त औजारों का उपयोग इसी प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए करते हैं। उनके नाटकों में चरित्र महत्वपूर्ण नहीं होते जो मुद्दे उठाते हैं, बल्कि वे मुद्दों को उठाने के लिए चरित्रों का निर्माण करते हैं। इसलिए वे बने-बनाये नाटकीय विधान को नकारने का साहस भी जुटाते हैं। अतः वे नाटक को किसी उत्पाद के रुप में नहीं, प्रक्रिया के रुप में देखते हैं जो प्रतिरोधी चरित्रों को जन्म देते हैं। इस प्रकार, प्रोवीन गुहा प्रतिरोध के रंगमंच के अगुवा प्रतिनिधि हैं।
12वें मुक्तिबोध नाट्य समारोह में दिवंगत हबीब तनवीर ने भी ‘विसर्जन’ को ‘राजरक्त’ के रुप में प्रस्तुत किया था। प्रोवीर ने अपनी प्रस्तुति में बांग्ला गीत-संगीत तथा हिन्दी-अंग्रेजी के संवादों का मिला-जुला उपयोग किया है, तो तनवीर साहब ने बांग्ला के गीतों तथा हिन्दी-छत्तीसगढ़ी के संवादों का खूबसूरती से प्रयोग किया था। तनवीर के हाथों छत्तीसगढ़ीलोकरंग में बंगाल की आत्मा पूरी तरह जीवित थी। टैगोर एक, उनका उपन्यास ‘राजश्री’ और नाटक ‘विसर्जन’ एक--लेकिन दो एकदम भिन्न प्रस्तुतियां ‘विषदकाल’ और ‘राजरक्त’ रंग-दर्शकों ने दोनों का मजा लिया, दोनों को सराहा। हिन्दुस्तानी रंगमंच की यही खासियत है, जो हमारी साझा संस्कृति से विकसित होती है--अंधविश्वास, कट्टरता, पोंगा पंथ व रुढि़वाद के खिलाफ प्रगतिशील-जनवादी जीवन-मूल्यों को आगे बढ़ाती हुई। जिस छत्तीसगढ़ में सरकार बारिश के लिए यज्ञ करती है, जिसके मंत्री-संत्री अपने अंधविश्वासों के खुले प्रदर्शनों के लिए बलि देते हैं और कानून व्यवस्था की जर्जर स्थिति को ग्रहों का प्रकोप बताने से नहीं चूकते, वह छत्तीसगढ़ निश्चय ही ऐसे विषदकाल में है, जहां प्रोवीर गुहा की रंगमंचीय उपस्थिति बहुत जरूरी थी। इस कठिन राजनैतिक समय में इप्टा के इस सांस्कृतिक हस्तक्षेप को सराहा जाना चाहिए।
वाद-विवाद-संवाद की द्वंद्वात्मक पद्धति का प्रयोग इप्टा भिलाई की तीसरे दिन की प्रस्तुति मंथन में भी देखने को मिला। दिवंगत शरीफ अहमद लिखित इस नाटक का निर्देशन किया था त्रिलोक तिवारी ने। इस दो पात्रीय नाटक में संजीव मुखर्जी ने केवट और राजेश श्रीवास्तव ने पंडित की भूमिका अदा की थी। दोनों का अभिनय बेहतरीन था। मंच सज्जा साधारण थी और सुभाष धनगर की रुपसज्जा पात्रानुकूल। वस्त्र-विन्यास मणिमय मुखर्जी का था। हमारे शास्त्रीय ग्रंथों में भी वाद-विवाद-संवाद की तार्किक पद्धति का गहरा प्रभाव देखने को मिलता है। अतः साहित्य और संस्कृति तथा इसकी एक शाखा रंगमंच भी इससे अछूती नहीं है। यह पद्धति हर चीज को नकारने, उस पर अविश्वास करने तथा वाद-विवाद के जरिये संवाद स्थापित करने और वर्गीय सत्य उद्घाटित करने पर जोर देती है। जो लोग आध्यात्मिकता की आड़ में अंधविश्वास और भाग्यवाद को अपना जीवनाधार बनाते हैं, वे इस पद्धति को पचानहीं पाते। इसीलिए चार्वाक नकारने की हद तक उनके निशाने पर रहे हैं। लेकिन सच्चाई यही है कि संपूर्ण गति का सार द्वंद्व ही है, द्वंद्व से ही समय और समाज आगे बढ़ता है। द्वंद्व से ही किसी पुरानी चीज से नयी चीज निकलकर आती है। ‘मंथन’ में इस प्रक्रिया को बड़ी ही खूबसूरती से उभारा गया है। संवादों के जरिये इस द्वंद्व को उभारने में बस इतनी छोटी और सीधी-सादी कहानी का सहारा लिया गया है कि नदी का पुल टूट गया है और नदी पार जाने के लिए नाव और केवट का ही सहारा रह गया है। पूरे दिन थकान से चूर होकर केवट खाने-पीने में व्यस्त है और पंडित जी को नदी पार ले जाने के लिए तैयार नहीं। पंडित उसे पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक, ईश्वर-- सबकी बात कहकर डराता है, लेकिन केवट अपने मजेपन में खिलंदड़ी के साथ पंडित की बात को काटता जाता है। अंत में पंडित खुद खाने-पीने लगता है और इस पाप का बोझ केवट पर डालता है। संवाद की इसी प्रक्रिया में पंडित को सांप काट लेता है और केवट पंडित के शरीर का विष चूसकर उसे तो बचा लेता है, लेकिन स्वयं सिधार जाता है।
पूरा नाटक मंचस्थ दो पात्रों की संवाद अदायगी के सहारे आगे बढ़ता है, लेकिन मुखर्जी और श्रीवास्तव ने इसमें अपने रंग भर दिये हैं। ये रंगीन संवाद दर्शकों को हंसाते-गुदगुदाते हैं और उसकी चेतना पर जमी धूल को हल्के से झाड़ते भी है। पूरा नाटक आस्तिक और नास्तिक दोनों समूहों के लिए दर्शनीय है और यही इस नाटक की सफलता है। इस समारोह का रंगारंग व भव्य समापन हुआ नादिरा बब्बर के ‘ये है बाॅम्बे मेरी जान’ से।रंगारंग इसलिए कि महाराष्ट्र मंडल के रंगमंच पर नादिरा के नाटक में जीवन के सभी रंग उपस्थित थे। ये सभी रंग मिलकर जादुई यथार्थवाद का सृजन कर रहे थे- जिसमें हास्य था, तो करूणा भी थी, संघर्ष था तो सुकून भी था, प्यार और नफरत भी थी। नादिरा के इस रंग में बाॅम्बे (मुंबई) नहीं कि झलक थी, लेकिन इसकी संवेदनायें किसी भी महानगर से जोड़ी जा सकती थीं और इसका विस्तार रोजी-रोटी और बेहतर जीवन की तलाश में संघर्ष कर रहे लोगों की संवेदनाओं तक किया जा सकता था। इसे संपूर्ण ड्रामा कहा जा सकता था, जिसमें सिनेमाई झलक और सीरियलों की स्पष्ट छाप थी। इसे देखते हुए मुझे ‘अमर अकबर एंथोनी’ और बहुत पुराने सीरियल ‘नुक्कड़’ की याद आ रही थी। लेकिन नादिरा के ये रंग बहुत ही सहज-स्वभाविक थे और इसमें किसी प्रकार की कृत्रिमता की गंध नहीं थी। नादिरा के इस जीवन रंग को रंग-दर्शकों का भरपूर प्रतिसाद मिला। पिछले तीन दिनों की तुलना में सबसे ज्यादा रंग-दर्शक इसी नाटक में आये, प्रेक्षागृह में पैर रखने की जगह नहीं थी, फिर भी पूरी तरह अनुशासित। इसकी नादिरा ने भी भूरि-भूरि प्रशंसा की। वास्तव में इस नाटक को ‘हिन्दुस्तानी रंगमंच’ के रुप में रेखांकित किया जा सकता है, जिसकी चर्चा इस समारोह की विचार संगोष्ठी में हो रही थी।
बंबई एक लघु भारत है, जहां हर धर्म, जाति, क्षेत्र, भाषा और प्रांत के लोग बसते हैं। इनमें से अधिकांश बंबई के होकर रह जाते हैं और बहुत सारे बंबई से बहुत कुछ लेकर और बहुत कुछ देकर चले जाते हैं। बंबई केवल मुंबईवासियों या मराठियों की ही नहीं है, सबकी है। बंबई हमारे महान भारत की ‘साझा हिन्दुस्तानी संसकृति’ का प्रतिनिधित्व करता है। बंबई की यही साझा संस्कृति नादिरा के रंग में खिल उठी है, जहां हिन्दू-मुस्लिम-ईसाई, मद्रासी-बिहारी-लखनवी सभी भाई-भाई के रंग बिखेरते हैं--अपनी मानवीय कमजोरियों, झगड़ों, तुच्छताओं और चालाकियों के बावजूद। उनमें गंगा-जमुनी तहज़ीब प्रवाहित होती है और हिन्दुस्तानी दिल धड़कता है। वे सभी अपने को स्थापित करने के संघर्ष में जुटे हैं और एक-दूसरे की परेशानियों में साथ हैं। इन परेशानियों में उनकी व्यक्तिगत परेशानियां तो हैं ही, महानगरीय जीवन जिस संकट की चपेट में आ रहा है, मसलन- धार्मिक आधार पर पुलिस प्रताड़ना, आतंकवाद, क्षेत्रीय उन्माद- उसकी भी परेशानियां हैं। लेकिन इन सब परेशानियों का एक ही हल है कि लोग-बाग एकजुट रहें। नादिरा की नाट्य संस्था ‘एकजुट’ एकजुटता के इस संदेश को रंग-दर्शकों तक सम्प्रेषित करने में कामयाब रही है। इस नाटक की कामयाबी इस तथ्य में भी निहित है कि नादिरा मनोरंजन के जिस तत्व को नाटक के लिए प्रधान मानती हैं, वह तत्व भरपूर तो था ही, बिना किसी राजनैतिक हल्ले और प्रचार के बंबई की सामाजिक-आर्थिक अंतर्संबंधों को भी उजागर करता है, जिसकी रचना में कथित ‘बाहरी’ लोगों का काफी योगदान है नाटक अपने सम्पूर्ण गठन में सामूहिक प्रस्तुति ही होती है-- एकल अभिनय सहित। यह सामूहिकता निर्देशन, अभिनय, गीत-संगीत, रुप-मंच सज्जा, प्रकाश, ध्वनि इन सभी में लयबंद्ध से पैदा होती है और तभी दर्शकों तक किसी नाटक का अपेक्षित प्रभाव सम्प्रेषित हो पाता है। यदि इनमें से किसी एक का भी तालमेल अन्य से बिगड़ जाये, तो अच्छे नाटक का भी सत्यानाश होने में देर नहीं लगती। नाटक की सामूहिकता को ‘एकजुट’ ने पूरी तरह उभारा। यही कारण है कि रंग-दर्शक भी तीजनबाई के हाथों नादिरा को स्वर्गीय कुमुद देवरस सम्मान से सम्मानित होते देखते हुए गौरवान्वित महसूस कर रहे थे। यह मुंबई के किसी रंगकर्मी का सम्मान नहीं था, बल्कि हिन्दुस्तानी रंगमंच का हिन्दुस्तानी कलाकार के हाथों सम्मान था।
ये रायपुर है मेरी जान, जहां साझा हिन्दुस्तानी संस्कृति धड़कती है- सांस्कृतिक लठैतों के हमलों के बावज़ूद।

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