Sunday 9 August 2015

आतंकवादियों को कंधार छोड़ने वाले ये कथित देशभक्त !!!


याकूब की मौत पर सुप्रीम कोर्ट ने ठप्पा लगा दिया और सरकार ने उसे फांसी पर चढाने में डेढ़ घंटे की भी देरी नहीं की. न्यायिक कायर्वाही पूरी हुई और याकूब नहीं रहा. उसके न रहने पर रोने से कुछ नहीं होना है. लेकिन याकूब की मौत से उपजे सवाल तो जिन्दा रहेंगे ही, ठीक वैसे ही जैसे अफज़ल गुरू की मौत से उपजे सवाल आज तक दफन नहीं हुए.
संघी सरकार की नज़र में मुंबई बम कांड का पटाक्षेप हो गया फांसी से. लेकिन इस बम कांड का मुख्य आरोपी आज भी पकड़ से बाहर है. पता नहीं, मोदी 'बहादुर' सरकार उसे पकड़ भी पाएगी या नहीं. टाइगर मेमन यही हाथ में आभी गया, तो उसे सजा मिल पायेगी भी या नहीं, क्योंकि इस कांड के मुख्य गवाह को तो वह फांसी पर चढ़ा ही चुकी है. इस सरकार की मुख्य दिलचस्पी तो केवल अपनी नाकामयाबियों पर पर्दा डालना ही है और इसके लिए अल्पसंख्यक मुस्लिमों के खिलाफ नफरत की राजनीति करने से भी उसे परहेज़ नहीं हैं. अदालत का काम मौत की सजा देना है, लेकिन उस पर कब और कैसे अमल करना है, यह विशुद्ध सरकार का काम है. याकूब की फांसी के लिए जितनी जल्दबाजी और उतावलापन इस सरकार ने दिखाई है, उससे इसके मंसूबे छिपे नहीं रह गए. यह सरकार इतनी ही कर्मठ होती, तो ना बेअंत सिंह के और न ही राजीव गांधी के हत्यारे आज जिंदा होते. यह सरकार इतनी ही नीतिवान होती, तो इनकी फांसी की सजा का विरोध करने वाली पार्टियों के साथ राजनैतिक गठबंधन न होता. साफ़ है कि फांसी की सजा का समर्थन या विरोध, फांसी की सजा देना या न देना शुद्ध राजनीति का सवाल बन गया है.
इसीलिए हम फांसी की सजा के विरोध में है. इतिहास ने कानून द्वारा दी गई बहुत सी फांसियों को 'न्यायिक हत्या' करार दिया है. हम किसी की न्यायिक हत्या तो कर सकते हैं, लेकिन किसी का जीवन वापस लौटा नहीं सकते. इसलिए किसी भी व्यक्ति के जीवन से खिलवाड़ करने का हक किसी को नहीं है, चाहे वह कितना भी बड़ा अपराधी क्यों न हो. उसे अदालत कड़ी-से-कड़ी सजा दें, उसका जीवन न छीने. यह दृष्टिकोण विश्व की एक बहुत बड़ी आबादी का है.
जिस तरह से संघी गिरोह ने याकूब की फांसी का विरोध करने वालों को 'देशद्रोही' करार देकर उन्माद फैलाने की कोशिश की है, निश्चित ही निंदनीय है. इन लोगों ने भूतपूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम का भी सम्मान नहीं रखा, जिन्होंने स्पष्ट रूप से फांसी की सजा का विरोध किया था और अपने कार्यकाल में किसी की भी दया याचिका का निपटारा उसे फांसी में चढाने के लिए नहीं किया. साफ़ है कि इस महान प्रतिभा का एक मुस्लिम के रूप में संघी गिरोह ने केवल राजनैतिक उपयोग ही किया है.इस घड़ी यह भी नहीं भूलना चाहिए कि निहित स्वार्थों के लिए हिरासत में लिए गए आतंकवादियों को फांसी पर चढाने के बजाए उन्हें ससम्मान कंधार पहुंचाने के लिए जिम्मेदार यही वह संघी गिरोह था, जो आज 'राष्ट्र भक्ति' की रट लायगे हुए छद्म राष्ट्रवाद का चोला पहने हुए है और अपने विरोधियों की देशभक्ति को संदिग्ध बनाने की कोशिश कर रहे हैं.
इतिहास बताएगा कि अफज़ल और याकूब को फांसी पर चढ़ाना उनकी न्यायिक हत्या के अलावा और कुछ न था.

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