Sunday 9 August 2015

निजी क्षेत्र में बैंकिंग से खतरे में पड़ी खाद्य सुरक्षा


केन्द्र की कांग्रेस सरकार ने कार्पोरेट घरानों को बैंक चलाने की इजाजत दे दी है। इससे अर्थव्यवस्था के विकास की दिषा ही बदल जाएगी, क्योंकि आम जनता से इकट्ठी की गयी पूंजी पर ‘समाज के नियंत्रण’ के बदले ‘निजी क्षेत्र’ का नियंत्रण स्थापित हो जाएगा। बैंकों के राश्ट्रीयकरण को यह विफल करने की ही कोषिष है। 

लोक कल्याणकारी राज्य के रुप में देष के स्वतंत्र व आत्मनिर्भर विकास में सार्वजनिक बैंकों का महत्वपूर्ण स्थान है, जिसका किसानों व लघु उत्पादकों तथा स्वरोजगार के लिए बेरोजगारों को पर्याप्त संस्थागत ऋण उपलब्ध कराना प्राथमिक कार्य रहा है। इस प्राथमिकता का सीधा-सकारात्मक असर देष की कृशि व्यवस्था पर पड़ा है। कृशि में पूंजी निवेष के कारण एक खाद्यान्न-आयातक देष से भारत का रुपांतरण खाद्यान्न-आत्मनिर्भर देष के रुप में हुआ है। इसने भारत को अकाल की विभीशिका से मुक्ति दिलाई है। कृशि क्षेत्र के विकास ने आम जनता की क्रय षक्ति में बढ़ोतरी की है। इससे औद्योगिक मालों की मांग बढ़ी है और औद्योगिक विकास को बढ़ावा मिला है। स्पश्ट है कि कृशि के विकास का औद्योगिक विकास के साथ सीधा संबंध है। 

कार्पोरेट बैंकिंग से इस ‘प्राथमिकता’ की आषा नहीं की जा सकती, क्योंकि इसका संबंध ‘लोक कल्याण’ से नहीं, बल्कि अधिक मुनाफा कमाने के लिए ‘सट्टेबाजी’ से होता है। वर्श 2008 का विष्व वित्तीय संकट निजी बैंकों की इसी सट्टेबाजी से पैदा हुआ था, जिसके झटकों से दुनिया अभी तक उबरी नहीं है। इस संकट से उबरने के लिए अमेरिका को अपने सार्वजनिक खजाने से 130 खरब डाॅलर (लगभग 7800 खरब रुपये) झोंकने पड़े थे। इस संकट की मार से भारत कमोवेष मुक्त रहा है, तो इसीलिए कि यहां की बैंकिंग पर ‘सामाजिक नियंत्रण’ बना हुआ है। कार्पोरेट बैंकिंग से यह ‘सामाजिक नियंत्रण’ खतरे में पड़ जाएगा, जिसके लिए ‘कृशि ऋण’ नहीं, बल्कि ‘उपभोक्ता ऋण’ ही प्राथमिकता में होते हैं। इतिहास का अनुभव भी यही है कि 1969 में राश्ट्रीयकरण से पहले निजी बैंकों में संस्थागत ऋण पूरी तरह उपेक्षित ही थे। वर्श 1991 के बाद से उदारीकरण के राज्य में 2-जी से लेकर कोयला घोटालों तक ये कार्पोरेट घराने भ्रश्टाचार में लिथड़े पड़े हैं। ये घराने अभी तक सार्वजनिक खजाने में लगभग 10 लाख करोड़ का डाका डाल चुके हैं। 


एक तरफ तो सरकार खाद्यान्न सुरक्षा कानून बनाती है, जिसके क्रियान्वयन के लिए खाद्यान्न उत्पादन बढ़ाना होगा और इसके लिए कृशि के क्षेत्र में और ज्यादा निवेष तथा संस्थागत ऋणों की जरूरत होगी, वहीं दूसरी तरफ यह सरकार कार्पोरेट बैंकिंग के दरवाजे खोल रही है, जिसकी प्राथमिकताएं ‘लोक कल्याण’ से ठीक विपरीत होंगी। तब देष की खाद्यान्न आत्मनिर्भरता के लिए संसाधन कहां से आयेंगे? हाथी के दांत खाने के और दिखाने के अलग-अलग होते हैं। स्पश्ट है कि खाद्य सुरक्षा कानून चुनावी लोकरंजन है, तो कार्पोरेट बैंकिंग की इजाजत वर्गीय वास्तविकता। उदारीकरण-निजीकरण के पैरोकारों से ऐसे ही खेल-तमाषों की आषा की जा सकती है। 


तो खाद्यान्न सुरक्षा जाये भाड़ में-- आने दो अकाल और भुखमरी का फिर से राज! लेकिन कार्पोरेट बैंकिंग जिंदाबाद, कार्पोरेट घोटाले अमर रहे!! देश की अर्थव्यवस्था का सत्यानाष होता है, तो होने दो!!!


कांग्रेस-भाजपा दोनों इस तबाही पर एकमत हैं, लेकिन देष की आम जनता क्या उन्हें इस तबाही की इजाजत देगी?

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