Saturday 15 August 2015

मन की बात


क्या तीर मारा है मियां मोदी ने !! एक साल पहले तक सुरक्षित लाल किला आज असुरक्षित हो गया. पिछले साल खुले में दहाड़े थे, आज बंद कठघरे में मिमिया रहे थे. बात-बात पर पाकिस्तान को ललकारने वाले के मुंह पर आज ताला लगा था, जबकि भाजपा राज में कश्मीर में रोज़ पाकिस्तानी झंडे फहराए जा रहे हैं. यदि किसी और का राज़ होता, तो बेचारों को मोदी कब का उखाड़ चुके होते. लेकिन आज इनकी देशभक्ति को जंग लग गया है.
लाल किला को सुरक्षित करने के लिए कल ही लोकतंत्र को उखाड़ फेंका गया था. जंतर-मंतर पर कहर बरपाया मोदी की पुलिस ने. सैनिकों को भी नहीं छोड़ा. जिसके राज में सैनिकों की सुरक्षा और सम्मान नहीं, वो देश के सरहदों की सुरक्षा कैसे करेगी? 'वन रैंक, वन पेंशन' पर सैद्धांतिक सहमति तो जाहिर कर दी, लेकिन इसमें नया क्या है? यह सहमति तो चुनावों में वोट बटोरने के लिए पहले भी थी, लेकिन 'छप्पन इंच के सीने' का दम इसे लागू करने में आज तक नहीं दिखता.
पूरे बात में बडबोलेपन के सिवा क्या था? 'मैं' ही 'मैं' था, 'हम' कहीं नहीं. यदि 'हम' नहीं, तो 125 करोड़ की 'इंडिया टीम' भी जुमला ही साबित होने जा रही है. फेंकू महाराज, जुमलों से देश नहीं चलता. अपने-आपको पिछड़े वर्ग का प्रधानमंत्री घोषित करना, चुनाव जीतने के लिए दंगों की राजनीति करना...और फिर जातिवाद-साम्प्रदायिकता के खिलाफ बोलना !! जनता आज इतनी भी अज्ञानी नहीं है कि इस राजनीति को न समझ सकें. इतनी ही ईमानदारी होती, तो महाराज 'मुस्लिमों' के साथ 'हिन्दू आतंकवादी' भी फांसी पर लटक रहे होते, उन पर से केस वापस नहीं होते और जेल से बाहर नहीं आते.
व्यापमं का घोटाला हो गया, डी-मेट का घोटाला सामने आ गया मध्य पदेश में, छत्तीसगढ़ में नान-चावल-नमक का घोटाला आ गया, घोटालेबाजों के प्रमोशन खुलेआम हो रहे हैं, तीन-तीन मुख्यमंत्रियों को बचाने के चक्कर में संसद तक की भी बलि ले ली, लेकिन फिर भी भ्रष्टाचार न होने का दावा तो कोई 'छप्पन इंची' हिटलर ही कर सकता है.
हम तो सुनने के लिए बेकरार थे कि भूमि अधिग्रहण के मुद्दे पर क्या कहने जा रहे हो, गरीब आदिवासियों के लिए जंगल की सुरक्षा होगी कि नहीं, भाजपाई नेताओं से महिलाओं की इज्जत बचाओगे कि नहीं, बेकरार थे हम जानने के लिए कि 'नौकरी' के जुमले के साथ न्यूनतम मजदूरी की गारंटी है कि नहीं, पाखाने के के साथ ही खाने की व्यवस्था कर रहे हो कि नहीं....लेकिन सब बेकार, हमारे कान तरसते ही रह गए और तुम 'जय हिन्द' कहकर चलते बने. हां, लेकिन ये अच्छा लगा कि तुमने कुछ दलित-आदिवासियों को उद्योगपति बनाने के लिए बैंकों के पास जरूर निवेदन किया. ' दलिद्दर पूंजीवाद' का ज़माना है, टाटा-बिडला-अडानी-अंबानी के लिए अमेरिका के पास जाकर गिड़गिड़ा सकते हो, तो इन बेचारों के लिए बैंकों के पास तो निवेदन कर ही सकते हो. भले ही ये बैंक किसानों को खेती के लिए कर्जा न दें, लेकिन उद्योगों को तो कर्जा दे ही सकते हैं. आखिर ऑस्ट्रेलिया में कोयला खोदने के लिए भी तो तुमने अडानी को बैंक से कर्जा दिलाया है. फिर ये तो आदिवासी-दलित उत्थान का मामला है. इस देश में कुछ दलित-आदिवासी पूंजीपति पैदा हो, तो कारपोरेटों के ही हाथ मजबूत होंगे...और कारपोरेटों की मजबूती में ही संघी गिरोह की भी मजबूती है.
वैसे जनता को 2022 तक का सपना दिखाने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद. लेकिन क्या भरोसा...!! 'अच्छे दिन-अच्छे दिन' चिल्लाते हुए कहीं हमें 2019 में ही 'बुरे दिन' न दिखा दें. इसलिए 2022 तक का सपना देखने के लिए जरूरी है कि हम 2019 से पहले ही अपने लिए मन-मुताबिक़ अपनी जनता चुन लें. मेरे 'मन की बात' तो यही है जी. अपने 'मन की बात' बता दो धीरे से मेरे कान में...

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