Sunday 9 August 2015

पुस्तक समीक्षा : पुराने दिनों के गायब होते लोगों के किस्से


हिन्दी-साहित्य पाठकों के लिए राजेष जोषी जाना-पहचाना नाम है। वे एक साथ ही कवि-कहानीकार-आलोचक-अनुवादक-संपादक सब कुछ हैं। हाल ही में उनकी रचना 'कि़स्सा कोताह (राजकमल प्रकाषन) सामने आयी है। राजेष जोषी के ही अनुसार, न यह आत्मकथा है और न उपन्यास। यह एक गप्पी का रोज़नामचा भर है- जो न कहानी है और न संस्मरण, यदि कुछ है तो दोनों का घालमेल- जिससे हयवदन विधा पैदा हो सकती है। गप्पी की डायरी के जरिये राजेष जोषी हिन्दी पाठकों को बेतरतीबवार नरसिंहगढ़ और भोपाल के, अपनी बचपन और परिवारजनों व दोस्तों के कि़स्से सुनाते हैं- जिसका न कोर्इ सिरा है और न अंत। ये कि़स्से हैं, जो एक जुबान से दूसरे कानों तक, एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक और एक स्थान से दूसरे स्थान तक अनवरत बहते हैं और इस बहाव के क्रम में उनका रुप-रंग-स्वाद सब कुछ बदलता रहता है- नहीं बदलती तो केवल कि़स्सों की आत्मा। चूंकि यह जीवन के कि़स्से हैं, सभी पाठक इनमें डुबकी मारकर अपने चेहरे खोज सकते हैं। राजेष जोषी सूत्रधार के रुप में केवल एक कड़ी हैं कि़स्सागो की-- बाक़ी तो कि़स्से हैं, जो बह रहे हैं अपने आप। तो फिर इन कि़स्सों को बुन कर जो रचना निकलती है, वह परंपरागत साहित्य के चौखटे को तोड़कर बाहर आती है, वह न कहानी के मानदंडों को पूरा करती है, न उपन्यास के और न संस्मरण के। साहित्य के बने-बनाये स्वीकृत ढांचे को तोड़कर राजेष जोषी जिस विधा को स्थापित करते हैं, वह है- हयवदन विधा। तो पाठकगण, राजेष जोषी के 'कि़स्सा कोताह में आप इस विधा के दर्षन कीजिये। लेकिन इस विधा का रस तो आपको तब मिलेगा, जब आप तथ्यों को ढूंढने की जिद छोड़ दें। इन कि़स्सों में राजेष जोषी की कल्पनाषीलता और लेखन षैली का मज़ा लें। इन कि़स्सों में जोषी बार-बार विस्मृति से स्मृति की ओर यात्रा करते हैं, और किस्से सुनाते हुये स्मृति से विस्मृति की यात्रा षुरु कर देते हैं, यह भूल जाते हैं कि वे क्या सुना रहे थे और इस क्रम में एक नया कि़स्सा सामने आ जाता है। 

साहित्य का एक काम यदि रसरंजन है, तो 'कि़स्सा कोताह षुरू से लेकर अंत तक रंजकता से भरपूर है। चूसनी आम को चूसने या रस निकालने की कला से सभी वाकि़फ होंगे। 'फजीता (सब जगह अलग-अलग नामों से ऐसा प्रयोग होता है) के रुप में आम की अंतिम रस-बूंद का उपयोग भी सभी जगह होता है। प्राय: सभी घरों में ऐसे 'नाना तो रहते ही हैं, जिनके पादने की जोरदार आवाज़ के मजे बच्चे लेते ही रहते हैं, गप्पी की तरह। नाना के पाखाने का कि़स्सा वे कुछ यों सुनाते हैं: 'भंगन के आने के पहले ही सुअर पाखाना साफ कर जाते थे। पाखाना जाते समय साथ में कुछ छोटे-छोटे पत्थर लेकर जाना पड़ता था। सुअर जब पीछे की तरफ से थूथन घुसाते तो पत्थर मारकर उन्हें भगाना पड़ता। (पृश्ठ 26) इस कि़स्से को पढ़ते हुये अपनी स्मृति में मुझे विश्णु खरे की कविता ' सिर पर मैला ढोने की अमानवीय प्रथा की ये पंकितयां ताजा हो जाती हैं: 
अब जब जि़क्र निकला है तो तुम्हें याद आते हैं वे दिन
कि तुम जब बैठे ही हो
कि अचानक कभी घुस आता था कोर्इ थूथन नहीं
बलिक चूडि़यों वाला कोर्इ सांवला सा हाथ 
टीन की चौड़ी गहरी तलवार जैसा एक खिंचौना लिये हुये
फिर जैसे तैसे उठकर भागने से पहले आती थी
स्त्री हंसी की आवाज जो कहती थी
और पानी डाल दो बब्बू
और उसके बाद राख की मांग की जाती थी
जिसे राखड़ कहा जाता था राख कहना अषुभ होता

आज तो मोबाइल का जमाना है और इस टिप्पणी के लिखते-लिखते देष के टेलीग्रामों को बंद करने की घोशणा हो चुकी है। लेकिन तब के जमाने में तो फोन दुर्लभ चीज थी। दुर्लभ चीजों का सामाजिक मूल्य भी बहुत ज्यादा होता है। तब के जमाने में इसका उपयोग अपषकुन काटने के काम में होता था। नानी के सिर पर बैठे कौव्वे के अपषकुन को इसी के सहारे काटा गया था। लेकिन सोचिये, तब ऐसी फोन सुविधा होती, तो नानी का अपषकुन कैसे कटता? 

गप्पी नरसिंहगढ़ के भूगोल और इतिहास को कि़स्सार्इ अंदाज में बताता है। सभी जगहों का भूगोल उसके विषेश इतिहास को जन्म देता है। विंध्याचल की पहाडि़यों से घिरे नरसिंहगढ़ का कि़स्सा 'डालडा सरकार (महाराज भानुप्रताप) से जुड़ता है, तो 'आन फिल्म की षूटिंग, नरेष मेहता के बचपन और महादेवी वर्मा के प्रेम-कि़स्सों से भी जुड़ता है। नरसिंहगढ़ का किला नश्ट हो गया ( और इस संदर्भ में राजेष जोषी की राजनैतिक टिप्पणी है--''पुराना सामंतवाद भूसा भरे षेर की तरह था, जिसकी आंखें कांच की अंटियों की थीं जो चमकती तो थीं लेकिन उनमें रोषनी नहीं थी।--पृश्ठ 21), लेकिन इतिहास के कि़स्से गप्पी की जुबान में जिंदा हैं। 

किस्से तो भोपाल के भी हैं, जो नवाब हमीदुल्ला खां की रियासत थी, देष के आजादी के दिन भी! इसलिए 15 अगस्त, 1947 को जब देष आजाद हुआ, तो भोपाल में कोर्इ बड़ा जष्न नहीं हुआ। (पृश्ठ 68) इससे विलीनीकरण आंदोलन में बहुत तेजी आ गयी। मास्टर लालसिंह, तरजी मषरीकी, बालकिषन गुप्ता, गोविंद बाबू, उद्धवदास मेहता, एडवोकेट सूरजमल जैन, षांति देवी, षिवनारायण वैध छोटे दादा, षिवनारायण वैध बड़े दादा.... आदि-इत्यादि कर्इ लोग इस आंदोलन से जुड़े थे। सबके अपने-अपने किस्से हैं, जिसे राजेष जोषी गप्पी की तरह किस्सार्इ षैली में हमें सुनाते हैं। 

कांग्रेस से जुड़े तरजी साहब विलीनीकरण आंदोलन के डरपोक सिपाही थे। एक मीटिंग में अपने डर को छुपाने के लिये ऊंची आवाज़ में गरजकर बोले.... आपको पता है....पता है आपको....बि्रटेन ने जब बरतानिया पर हमला किया, तो लंदन तबाह हो गया। (पृश्ठ 47) लेकिन प्रजामंडल से जुड़े छोटे दादा थे बड़े गुस्सैल और बात-बात में गालियां बकते थे, क्योंकि उनका मानना था कि उनके पास गाली बकने का लाइसेंस है। भोपाल में यह लाइसेंस बिना किसी टैक्स के सबको हासिल था। (पृश्ठ 42) सो माना जाये कि राजेष जोषी को भी था (है)। वे भी इस 'हयवदन विधा में इन गालियों के कुछ नमूने पेष करते हैं, लेकिन काषीनाथ सिंह ('काषी का अस्सी) के आगे फीके हैं। ठूंसी हुयी गालियां काषीनाथ सिंह का तो मजा नहीं दे सकतीं! 

बहरहाल, 1 जून, 1949 को भोपाल रियासत स्वतंत्र भारत का हिस्सा बना। भोपाल के नेताओं और मौलाना आजाद के प्रयासों से भोपाल मध्यप्रदेष की राजधानी बना और षंकरदयाल षर्मा पहले मुख्यमंत्री। पांच मंत्री और 25 विधायक। राज्यपाल की जगह कमिष्नर सरकार का मुखिया। एक आषु कवि खुषाल कीर का दोहा गप्पी के किस्से में दर्ज हो गया: 
पांच पंच कुर्सी पर बैठे
फटटन (टाटपटटी) पर पच्चीस
राज करन को एक कमीष्नर 
झक मारन को तीस।

लेकिन रानी कमलापति से नवाब दोस्त मोहम्मद खां को मिले भोपाल का भूगोल गलियों, चौकों, मौहल्लों, तालाबों व मसिज़दों के किस्सों के बिना पूरा नहीं होता। जहां लोग-बाग बसते हों, किस्से भी वहीं जन्म लेते हैं। तो भोपाल किस्सों का षहर है, क्योंकि यहां जितनी गलियां, उतने किस्से; जितने चौक-मौहल्ले, उतने किस्से; हर तालाब के अपने किस्से और मसिज़दों के भी। और इन सभी किस्सों में इतिहास की मिलावट। बिना सन बताये (और इस तरह इतिहास को बोझिल किये बिना) राजेष जोषी इन तमाम किस्सों को कहते-बतियाते चलते रहते हैं-- ठीक किसी चलचित्र की तरह-- जैसे पुराने जमाने के लोग और कैरेक्टर एक के बाद एक जिंदा हो उठे हों। राजेष जोषी गप्पी की स्मृतियों के सहारे पुराने दिनों की धड़कन हमें सुनाते हैं-- सबसे बुरे दिनों के अनुभव भी किसी मजेदार किस्से की तरह। इन सबसे मिलकर ही गप्पी की स्मृति में भोपाल षहर बसता है-- जिसमें दादा खै़रियत है, तो बिरजीसिया स्कूल और उसके मास्टर भी: दादा खै़रियत हमेषा सिर झुकाकर चलते थे। षहर के विषाल दरवाज़ों के नीचे से निकलते तो थोड़ा सिर और झुका लेते जैसे दरवाजा किसी भी वक्त उनके सिर से टकरा जायेगा। (पृश्ठ 62) वैसे ये सब जिंदा पात्र ही मिलकर राजेष जोषी के साहितियक व्यकितत्व का निर्माण करते हैं। 

पाठकों का इन कैरेक्टरों से कोर्इ पहली बार सामना नहीं हो रहा है। राजेष जोषी की कविताओं और डायरियों से वे इनसे भली-भांति परिचित हैं। 'किस्सा कोताह में तो चरित्रों का बस पुनर्जन्म हो रहा है। राजेष जोषी की कविता में 'दादा ख़्ौरियत इस तरह उतरते हैं: 
कैसा गुरूर अपने कद का दादा ख़्ौरियत को
कि खत्म हो चुकी नवाबी रियासत का
बचा हुआ यह आखरी दरवाजा
छोटा पड़ता हैं उन्हें 
तनकर निकलने के लिए आज भी।

अपनी एक दूसरी कविता 'रफीक मास्टर साहब और कागज के फूल में वे बिरजीसिया स्कूल के रफीक मास्टर साहब को गणित पढ़ाने और कागज के बहुत सुन्दर फूल बनाने के लिए याद करते हैं, न कि 1952 के दंगों में मारे जाने के लिये। 
लेकिन इन किस्सों को कहते राजेष जोषी की वर्तमान पर भी सधी नजर है। किस्सों के बीच जगह-जगह दबी-फंसी उनकी टिप्पणियां इसकी गवाह हैं। एक टिप्पणी का जिक्र तो ऊपर कर चुके हैं। कुछ और टिप्पणियां: 
- बाजार के पागलपन ने असल पागलों की सारी जगहों को हथिया लिया है। (पृश्ठ61) 
- यह भारतीय इतिहास का सबसे बुरा तिरंगा था। (पृश्ठ 72)
- तानाषाही लिखे हुये षब्द पर प्रतिबंध लगा सकती है। छपे हुये षब्द पर काली रोषनार्इ फेर सकती है। किताब और पत्रिका को जलाकर खाक कर सकती है। लेकिन कहा जाता है न ....। बोला गया षब्द लिखे हुये षब्द से ज्यादा स्वतंत्र होता है। किस्सा तानाषाह की पहुंच के बाहर होता है। .....वह घुमन्तों की कला है। नागाजर्ुन ने कहीं कहा था कि अपने देष में लिखने से ज्यादा जरूरी बोलना है। किस्सा बोलने की कला है। कहने-सुनने की कला।... (पृश्ठ 113)
-स्मृतियों की बायोलाजिक क्लाक पर कोर्इ भी षासक इमरजेंसी लागू नहीं कर सकता। (पृश्ठ 144)
- इमरजेंसी में बने चुटकुले अगर इकटठे कर लिये जाते तो जनता के वास्तविक गुस्से का अंदाजा लगाया जा सकता था। (पृश्ठ 160)

इन टिप्पणियों से स्पश्ट है कि भोपाल षहर राजेष जोषी के लिए केवल 'अतीत का इतिहास ही नहीं है, बलिक 'वर्तमान की रणस्थली भी है। भोपाल ही वह षहर है, जिसने राजेष जोषी को राजेष जोषी बनाया- वामपंथी चेतना से लैस। भोपाल षहर ने ही उनके साहितियक व्यकितत्व का निर्माण किया। भोपाल के इस ताजा इतिहास को वे बड़ी आत्मीयता से पेष करते हैं। 

विलीनीकरण आंदोलन के नेता कहीं विलीन नहीं हुये थे। अब उनकी भूमिकायें जरूर बदल गयी थीं। चार लोगों- बालकिषन गुप्ता, गोविंद बाबू, मोहिनी देवी और षाकिर अली खान-- की पार्टी का षहर में अच्छा-खासा प्रभाव था और षाकिर अली खान ही हमेषा विधानसभा का चुनाव जीतते। लेकिन भोपालियों में जो गप्प उड़ाने का हुनर था उसका दुरूपयोग होना षुरू हो चुका था। हिन्दू महासभा और मुसिलम लीग में होड़ चल रही थी। यहएक सार्वजनिक कामेडी की तरह थी। किसी किस्म का तनाव नहीं था। लेकिन धीरे-धीरे तनाव पैदा करने के उपाय खोजे जा रहे थे। (पृश्ठ 80) वे सफल हुये और रंगपंचमी के दिन अचानक दंगा षुरू हो गया। गप्पी की स्मृति में एक षांत, सौहार्दपूर्ण षहर के दंगाग्रस्त षहर में तब्दील होने के किस्से मौजूद हैं। भोपाल षहर ने गप्पी को दंगों-द्वेशों की नहीं, गंगा-जमुनी तहजीब की चेतना दी। 

अपने छात्र जीवन में ही जोषी कम्युनिस्ट नेताओं के संपर्क में आ चुके थे। इसी के साथ नौकरी के लिये जीवन और घर-परिवार के आवष्यक तनाव....और फिर भोपाल में बैंक की नौकरी। नौकरी के साथ ही भोपाल षहर ने उन्हें साहित्यक-सांस्कृतिक तमीज भी दी। यहीं वे वेणुगोपाल के संपर्क में आये और उन्हें गढ़ने में वेणु के योगदान के किस्सों को गप्पी याद करता है। सोमदत्त, फज़ल ताबिष और षरद जोषी से भी उनकी पहचान वेणु के माध्यम से ही हुयी। रामप्रकाष त्रिपाठी ग्वालियर के छात्र आंदोलन के नेता थे तथा भोपाल में हिन्दी ग्रंथ अकादमी में कार्यरत थे। इसी समय माकपा ट्रेड यूनियनों का काम षुरू हुआ। इस प्रकार राजेष जोषी का कमरा गप्पबाजी , आंदोलन और साहितियक चर्चाओं का अडडा बन गया।
1973 के अंतिम दिनों में उन्होंने वेणु के साथ प्रगतिषील लेखक संघ के बांदा सम्मेलन में हिस्सा लिया। असगर वजाहत, सनत कुमार, धूमिल, विजयेन्द्र, सव्यसाची, मन्मथनाथ गुप्त, चंद्रभूशण तिवारी, कर्ण सिंह चौहान- आदि सबसे वे यहीं मिले। इस सम्मेलन ने एक नये गप्पी को जन्म दिया। 

अपनी गतिविधियों के कारण वे पुलिस की नजर में आ चुके थे। इमरजेंसी लगने के बाद के दिन काफी त्रासद रहे। नागरिक अधिकार निलंबित हो चुके थे और संघर्श की तमाम ताकतों ने एक समझदारी भरी चुप्पी ओढ़ ली थी। संजय गांधी इस नये जमाने के नये राजकुमार थे। आपातकाल, इंदिरा गांधी और संजय गांधी पर चुटकुले-किस्से हवा में तैर रहे थे। बापू का डंडा जनता के पृश्ठ भाग में घुसेड़ दिया गया था। राश्ट्रीय स्वयं सेवक संघ कांग्रेस के पास षरणागत थी और उसके कार्यकर्ता संजय गांधी की रैलियों को सफल बनाने में जुटे थे। भोपाल में पटिया-पोलेटिक्स पर बंदिष लग चुकी थी, क्योंकिपटियों पर सरकार को लगता होगा कि फालतू बैठे लोगों के बीच खतरनाक विचार पनपते हैं। (पृश्ठ 162) आम लोगों के लिये देर रात का भोजन और देर रात की चाय-सिगरेट जुटाना भी मुषिकल हो गया था। 

ये लगभग 30 सालों के किस्से हैं- स्वतंत्रता पूर्व जन्म से लेकर आपातकाल तक का-जब आधी रात को मिली आजादी आधी रात को छीन ली गयी थी। इस आपातकाल में जिस 'अनुषासन पर्व को मनाया गया, उसके खिलाफ छटपटाहट भी मौजूद है, क्योंकि जेल के बाहर का षहर ज्यादा बड़ी जेल में बदल गया था। इस बड़ी जेल के खिलाफ देष की जनता का संघर्श 'ऐतिहासिक था। इस 'दूसरी आजादी और उसके बाद के समय के किस्से राजेष जोषी पता नहीं कब बुनेंगे, लेकिन एक चिडि़या के घोंसले बनाने के रुपक से वे अपनी 'हयवदन विधा को विराम देते हैं। उन्हें उसके अंडों से बच्चों के निकलने और उनके उड़ान भरने का इंतजार है। और पाठकों को भी इसी का इंतजार रहेगा कि उनका इंतजार कब खत्म होता है, क्योंकि हमें अगले 30-40 सालों के किस्से और सुनने हैं और इसी 'हयवदन विधा में बाद के इन सालों के किस्से एक नये भारत के निर्माण के संघर्श के किस्से होंगे जो!
'किस्सा कोताह पढ़ते हुये मुझे लगातार 'काषी का अस्सी (काषीनाथ सिंह) की याद आती रही। '15 पार्क एवेन्यू नामक फिल्म को देखकर राजेष जोषी को जो पहली कृति याद आयी यह काषी का अस्सी थी।.... (15 पार्क एवेन्यू ) इस अंत में ना आषा है न निराषा। न यह तार्किक है न यौकितक। यह उस कथा की समस्या है या हमारे समय और हमारे यथार्थ की? षायद हम एक ऐसे समय में हैं जहां अपनी यथार्थवादी कथा के लिये कोर्इ यौकितक, कोर्इ बुद्धिसंगत अंत ढूंढ़ना असंभव सा लगता है। यहां लगभग एक अतार्किक सी फंतासी ही रचनाकार की मदद कर सकती है। काषी का अस्सी भी दिनों-दिन गायब हो रही हंसी का एक लंबा रुपक है।.... यह यथार्थ कथा भी अपने निजी अंत तक पहुंचने के लिये यथार्थ से बाहर आकर एक फैंटेसी की षरण लेती है। षायद यही हमारे समय की कथा की तार्किक और विवेकपूर्ण नियति भी है और प्रविधि भी। (बनास, अंक दो, वर्श 2009) क्या 'किस्सा कोताह और '15 पार्क एवेन्यू में कोर्इ सम्बन्ध स्थापित किया जा सकता है?

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