Monday 23 November 2015

इप्टा नाट्य समारोह: रंग-भावनाओं की झमाझम बारिश

इप्टा नाट्य समारोह: रंग-भावनाओं की झमाझम बारिश
'महाभारत ' समाज में मातृसत्ता के लोप और दासत्व की स्थापना का महाकाव्य है. विभिन्न कला-माध्यमों में यह काव्य पुनर्रचित, पुनर्सृजित होता रहा है. राष्ट्रकवि रामधारीसिंह दिनकर ने इसकी पुनर्रचना ' रश्मिरथी ' के रूप में की है, तो नाट्य संस्था ' रूपवाणी ' के जरिये व्योमेश शुक्ल ने इसे मंच पर नृत्य नाटिका के जरिये साकार किया है.

' रश्मिरथी ' महाभारत की कहानी का हिस्सा है. महाभारत का एक अद्वितीय चरित्र है कर्ण. कर्ण एक संपूर्ण व्यक्तित्व नहीं है. उसके व्यक्तित्व का निर्माण महाभारत के विभिन्न पात्रों के आचरण से निर्मित होता है. वह कुंती की अवैध संतान है, क्योंकि कुंती ने उसे कुमारी अवस्था में उत्पन्न किया था. वह सूर्यपुत्र था, लेकिन मातृसत्ता के ध्वंस ने कुंती को इतना असहाय बना दिया था कि उसे अपने सुंदर पुत्र का त्याग करना पड़ा. ' सूर्यपुत्र ' को ' सूतपुत्र '  बनना पड़ा, जिसका पालन-पोषण दरिद्र और मामूली मछुआरों द्वारा किया गया. मनु के वर्ण-विधान में ' सूत ' शूद्रों के अधिक निकट थे. लेकिन फिर भी वह, अपने वैध पांडव भाईयों से अधिक वीर व उदार था. अर्जुन भी हालांकि राजा पांडु की वैध संतान नहीं था, लेकिन उसके पास पितृसत्ता और उससे उत्पन्न कुल-गोत्र की छाया थी. पितृसत्ता और कुल-गोत्र का यह बल कर्ण पर हमेशा भारी पड़ा, बावजूद इसके कि वह अर्जुन से ज्यादा पराक्रमी था. प्रतिद्वंद्वी कर्ण भरी सभा में अपने पिता का नाम नहीं बता सका. कुंती का आंचल दूध से भीगता रहा, लेकिन मातृसत्ता हार चुकी थी. अब संतानों की पहचान पिताओं से होती थी.

मातृसत्ता के ढहने और पितृसत्ता के स्थापित होने का प्रतीक परशुराम भी है, जिन्होंने अपने पिता के कहने पर अपनी माता की हत्या की थी. कर्ण को इस मातृहंतक ब्राह्मण से भी शापित होना पड़ा.

इस प्रकार कर्ण को बार-बार अपने पूरे जीवन अपनी अस्मिता से जूझना पड़ा. बार-बार उसका अतीत उसके ' वीरत्व ' को पीछे खींचता रहा. तब दुर्योधन ने उसे पहचान दी, उसका अभिषेक राजा के रूप में किया और कुंतीपुत्र कर्ण अपनी संपूर्णता में दैदीप्यमान कौरव सेनापति के रूप में खड़ा होता है. अपनी अस्मिता के संघर्ष में कर्ण विजयी होता है. कौरवों और पांडवों के बीच का महाभारत ' कर्ण ' की उपस्थिति के बिना अर्थपूर्ण व संभव न था.

इसीलिए दिनकर की ' रश्मिरथी ' का नायक कर्ण ही है, जिसे व्योमेश शुक्ल ने ठेठ बनारसी रंग में कल मुक्ताकाशी मंच पर साकार किया. इसके विमर्श के केन्द्र में अस्मिता की वही राजनीति है, जो आधुनिक भारत की राजनीति के केन्द्र में आज भी है. अन्याय के खिलाफ सामाजिक लामबंदी के प्रभावशाली साधन के रूप में आज भी इसका प्रयोग किया जा रहा है. शायद यही कारण हो कि दलितों और वंचितों को आज भी सबसे ज्यादा अपील कर्ण ही करते हैं, कृष्ण नहीं.

व्योमेश शुक्ल अपने अंदाज़ में ' रश्मिरथी ' को प्रस्तुत करते हैं, जिसमें बार-बार कुंती की आवाजाही और उसका मातृनाद है. इस मातृनाद से विचलित होते हुए भी, कुंती के लिए कर्ण का आश्वासन केवल यही है कि उसके पांच बेटे जीवित रहेंगे, ' पांच पांडवों ' का वे कोई आश्वासन नहीं देते. इस प्रकार वे पितृसत्ता को चुनौती देते हैं. अपनी अस्मिता के संघर्ष में वे जातिप्रथा की अमानवीयता को उजागर करते हैं, जो एक मनुष्य को उसकी मानव जाति से अलग कर दासत्व की श्रेणी में ढकेलती है. कर्ण का संघर्ष क्रमशः स्थापित होती दास प्रथा के खिलाफ हुंकार भी है. कर्ण की मृत्यु दास प्रथा की स्थापना का प्रतीक है. कर्ण, दुर्योधन और कृष्ण के अभिनय में उनके स्त्री-पात्रों ने बहुत कुशलता से रंग भरा है.

व्योमेश शुक्ल ने कल रंग-भावनाओं की जो झमाझम बारिश की है, वह आज भी जारी रहेगी. यह 19वें मुक्तिबोध राष्ट्रीय नाट्य समारोह का दूसरा दिन था -- जो जितेन्द्र रघुवंशी के साथ ही बबन मिश्र की ' अपराजेय ' स्मृति को समर्पित था. इस दिन आयोजकों ने अपनी उस घोषणा से भी ' मुक्ति ' पा ली कि कुमुद देवरस सम्मान जिस महिला नाट्यकर्मी को दिया जाएगा, उसकी एक नाट्य-प्रस्तुति भी मंच पर अवश्य ही होगी. इस वर्ष यह सम्मान रायगढ़ इप्टा की ऊषा आठले को दिया गया, लेकिन उनकी नाट्यकृति की अनुपस्थिति के साथ. इप्टा को अभी बहुत-से झंझटों से मुक्ति पाने के लिए एक लंबी यात्रा करनी होगी.
(लेखक की टिप्पणी बतौर एक दर्शक ही)

इप्टा नाट्य समारोह: प्रेमचंद की बंबईया प्रस्तुति

इप्टा नाट्य समारोह: प्रेमचंद की बंबईया प्रस्तुति
प्रेमचंद अपनी लेखनी से महान थे, इसमें किसी को शक नहीं. वे सामंतवादविरोधी-साम्राज्यवादविरोधी प्रगतिशील साहित्य आंदोलन के अगुआ थे. अपनी लेखनी में उन्होंने न जॉन को बख्शा, न गोविंद को. सांप्रदायिकता हमेशा उनके निशाने पर रही कि किस तरह वह संस्कृति की खाल ओढ़कर सामने आती है और आम जनता को बरगलाती है. जिस ' गाय ' पर आज भारतीय राजनीति में घमासान मचा हुआ है, उस गाय के विविध चित्र अपने पूरे रंग में उनकी कहानियों में छाये हुए हैं -- दो बैलों की कथा से लेकर पंच परमेश्वर और गोदान तक फैली हुई. सामाजिक कुरीतियों पर जिस तरह उन्होंने करारा व्यंग्य किया, बहुत ही कम लोगों ने किया और इसके लिए उन्हें ' घृणा का प्रचारक ' कहा गया. महात्मा गांधी के आह्वान पर उन्होंने अपने शिक्षकीय पेशे से त्यागपत्र दिया. आज यदि वह ऐसा काम करते, तो शायद हमारा संघी गिरोह उन्हें अपनी गालियों से नवाजता. वैसे तब भी वे सांप्रदायिक ताकतों के निशाने पर थे.
सभी कहानियां मंचन योग्य नहीं होती. प्रेमचंद पर भी यह लागू होती है. ऐसी कहानियों को मंचित करने की कोशिश की जाएं, तो उसके मंच पर कहानी-पाठ बनकर रह जाने का खतरा रहता है. ऐसी कहानियां सूत्रधारों के बल पर चलती है. सूत्रधारों का रंगाभिनय रंग-दर्शकों की रंग-कल्पना को उत्तेजित करता है और उसके रंग-मानस में दृश्य रचता है. इस मायने में सूत्रधार कमजोर, तो पूरे मंचन के बैठ जाने का खतरा रहता है. यह मुजीब का ही साहस है कि वे इस खतरे को उठा रहे हैं. लेकिन इसके बावजूद, जहां भी हास्य-व्यंग्य की उपस्थिति रही, कलाकारों ने जमकर नाटक खेला है और दर्शकों को प्रेमचंद से जोड़ने में सफलता हासिल की है.  
आज समूचा प्रगतिशील कला-जगत संघी गिरोह के निशाने पर है. वे पूरे समाज को धर्म और जाति के आधार पर बांट देना चाहते हैं, ताकि अपने ' हिंदू-राष्ट्र ' के निर्माण के लक्ष्य की ओर बढ़ सकें. हिंदुत्व की मानसिकता पैदा करने की कोशिश कितनी नापाक है, यह निर्दोष ईखलाक की भीड़ द्वारा हत्या से पता चलता है. एक बहुलतावादी, धर्म-निरपेक्ष और सहिष्णु समाज को एकरंगी, पोंगापंथी और असहिष्णु समाज में बदलने की कोशिश जोर-शोर से जारी है. इसके खिलाफ संघर्ष में प्रेमचंद मशाल लिए आगे-आगे चल रहे हैं. प्रेमचंद की इस मशाल को मुक्तिबोध ने थामा था और हिंदुत्ववादियों ने उनकी पुस्तकों की होली जलाई थी. प्रेमचंद और मुक्तिबोध की इस मशाल को गोविंद पानसारे, नरेन्द्र दाभोलकर और कलबुर्गी ने थामा था और उन्हें शहादत देनी पड़ी. 
लेकिन इस समारोह ने स्थापित किया कि प्रगतिशील विचारधारा से ज्यादा सहिष्णु और कोई विचारधारा नहीं हो सकती. जिस देश में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के हत्यारों का सम्मान किया जा सकता है, उस देश में इप्टा को संघी पत्रकार के निधन पर श्रद्धांजलि देने से कोई हिचक नहीं हो सकती. इस समारोह के इस पत्रकार के नाम पर समर्पित होने की ख़बरें तो हवा में चल ही रही है.
(लेखक की टिप्पणी बतौर एक दर्शक ही)

Wednesday 18 November 2015

हिन्दू आबादी बढ़ाने के लिए संघी गिरोह को कुछ सुझाव


संघी गिरोह हिन्दुओं की आबादी घटने से चिंतित है. उन्हें हिन्दुओं के अल्पसंख्यक हो जाने का खतरा सता रहा है. लेकिन हिन्दुओं में भी एक बड़ा हिस्सा ऐसा है, जो इस वास्तविक खतरे को ‘भ्रम’ बताकर अल्पसंख्यकों के साथ ‘राष्ट्रविरोधी’ कार्यों में लिप्त है. इन राष्ट्रविरोधियों की पहचान ‘सेक्युलरों’ के रूप में होती है. तो ऐसी स्थिति में, ‘संघी’ हिन्दुओं को ही हिन्दुओं की आबादी बढ़ाने में तो अपना योगदान देने का बीड़ा उठाना ही चाहिए. इसके लिए विनम्रतापूर्वक कुछ सुझाव पेश हैं :
–1. संघी प्रचारक अपने ‘अविवाहित’ रहने का व्रत तोड़ें. सबको मालूम है कि वे ‘अविवाहित’ तो रहते हैं, लेकिन ‘ब्रह्मचर्यत्व’ का पालन नहीं कर पाते. इसलिए वे सब विवाह करें, ‘वीडियो कांड’ की बदनामी से बचें और संघी गिरोह के पूर्व प्रधान सुदर्शन महाराज के सुझाव के अनुसार 5 से 16 बच्चे पैदा कर हिन्दुओं को ‘लुप्त’ होने से बचाने में अपना योगदान दें.
–2. प्रेरणास्वरूप इसकी शुरुआत उच्च स्तर से ही होना चाहिए. इसलिए फेंकू महाराज अपनी पत्नी को साथ रखें और इस पुनीत काम में निःस्वार्थ ढंग से हाथ बंटाएं. यदि ऐसी प्रेरणा स्वयं सरसंघचालक दे सकें, तो सोने में सुहागा.
–3. दहेज़ के कारण लाखों हिन्दू लड़कियां घर बैठी हुई हैं. लिंग-भेद के कारण कन्या भ्रूण हत्या हो रही है. 23 लाख वेश्याएं नारकीय जीवन देश में गुजार रही हैं. देश में 4 करोड़ से ज्यादा विधवाएं हैं, जो घर और बाहर लांछित जीवन जी रही हैं. संघ को समाज-सुधार की मुहिम छेड़ना चाहिए और अपने भक्तों को निर्देशित करना चाहिए कि इन्हें अपनी अर्धांगिनी बनाए और संतति-वृद्धि में योगदान देकर हिन्दू समाज के बहुमत को बनाए रखे. इस काम के लिए संघ उन तमाम ‘देवों’ का उदाहरण भी सामने रख सकता है, जिनकी हजारों ‘देवियां’ होती थीं.
–4. भारत में स्वास्थ्य की स्थिति काफी खराब है और इसके शिकार अधिकांशतः महिलायें और बच्चियां ही हो रही हैं. माताओं और बच्चों की मृत्यु दर इसी कारण विश्व औसत से काफी ऊपर है तथा मानव विकास सूचकांक में हम काफी नीचे. किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं और इनमें भारी तादाद हिन्दू महिलाओं की भी है. रोजगार का अभाव आम हिन्दुओं के आर्थिक पिछड़ेपन को और आगे बढाता है. यह स्थिति संघी सरकार की उन नीतियों के कारण है, जिसका लक्ष्य केवल धनकुबेरों का ही विकास है. संघ नेतृत्व इन नीतियों को बदलवाएं, ताकि आम हिन्दू स्वस्थ्य रहे तथा वे और ज्यादा बच्चे पैदा करने के लिए सक्षम रहें.
संघी गिरोह के सभी कार्यकर्ताओं से इन सुझावों पर बहुमूल्य तार्किक विचार आमंत्रित हैं. कृपया गाली-गलौज करके अपनी असभ्य संघी संस्कृति’ का परिचय न दें.

हाय रे बिहार की जनता, तेरी क्षय हो !!


अब लोगों को 'जंगल राज' ही चाहिए, तो हम क्या करें? उन्हें तो जंगल राज के साथ ही 'तंत्र-मंत्र' राज भी चाहिए था !! हमारे मोदीजी बहुत बड़े 'मैजिशियन' है. उन्होंने तो ओबामा साहब तक पर अपने जादू का डंडा चलाकर अपने वश में कर रखा है. उनके पास तो सबसे बड़ा वशीकरण मंत्र है. नीतीश का तंत्र-मंत्र उनके सामने क्या लगता है !! लेकिन लोगों को जंगल राज कहां से देते?? सो बेचारे मोदीजी, लोकतंत्र के पुजारी !! मारे गए नीतीश-लालू के हाथों.
हमें सत्ता नहीं चाहिए, लोकतंत्र चाहिए. सारे देश में मोदीजी का जादू चल गया, तो क्या बिहार में न चलता !! मोदीजी के अघोरी तंत्र-मंत्र के सामने नीतीश का तंत्र-मंत्र पानी भरता दिखता. पर हाय रे तकदीर, लोगों को तो जंगल राज चाहिए था, वो मोदीजी कहां से लाते?? जनता उनसे हिटलर राज मांगती, तो ला देते. मांगती संघी राज, तो बाएं हाथ का काम था. भ्रष्टाचार राज भी मांगती, तो कोई बात नहीं थी. रमन राज ला देते, शवराज-राज ला देते, कोई मांगता तो सही उनसे !! लेकिन लोकतंत्र में जंगल-राज !?? ये मोदी नहीं, लालू-नीतीश के बस की ही बात हो सकती है.
कितना समझाया लोगों को कि विकास मांगो. विकास के लिए गाय का दूध-मूत्र पीओ. लेकिन जनता को तो गाय का मांस ही चाहिए था, जंगल-राज में खून का जो टेस्ट उसके मुंह में लग गया होगा. हमने कितना समझाया, गाय का मूत पीओ, स्वस्थ्य रहो. कैंसर जैसी बीमारी तक मूत से दूर भागती है. लेकिन पलटकर पूछने लगी, तो फिर दूध किसके लिए !! हमको दूध भी नहीं, और मांस भी नहीं. ये सब लालू-नीतीश का दुष्प्रचार था. इनसे मोदीजी का दूध पीकर स्वस्थ्य रहना भी नहीं देखा जाता. कितना समझाया कि धर्म की रक्षा करो. कितना पापड़ नहीं बेला हमने, इसे समझाने के लिए. जरूरत पड़ी, तो खुद ही गाय का मांस मंदिरों में डलवाते रहे, लेकिन अधार्मिकों को न जागना था, न जगे. आखिर तक बेहोश ही रहे और लालू-नीतीश को वोट कर आये. अब जिनकी किस्मत में जंगल-राज ही लिखा था, उनको मोदी-राज की पहचान कहां से होती?
हमने कहा, पढ़ाई-दवाई, तो उन्होंने सुना खवाई. फिर तो पूरे महीने दाल-गेहूं-शक्कर का भाव ही पूछते रहे और हमें दाल-आटे का भाव ही याद दिलाते रहे. हमने उन्हें याद दिलाया, फलानां तुम्हारा दुश्मन, तो 'असहिष्णुता-असहिष्णुता' चिल्ला-चिल्लाकर नाक में दम किये रहे. इतना चिल्लाया कि सब लोग अपने तुच्छ पुरस्कार लौटाकर मीडिया में अपना नाम छपवाते रहे. हमने ऐसे लोगों को पाकिस्तान में बसने के लिए कहा, तो इस मूर्ख जनता ने हमें ही 'बिहार-निकाला' दे दिया.
हाय रे बिहार की जनता, तेरी क्षय हो. तूने ही अडवाणी का रथ रोका था और आज फिर तूने मोदी के हवन कुंड में पानी डालने का काम किया है !!

Saturday 7 November 2015

मिथक मुस्लिमों के बहुसंख्यक होने का

मिथक मुस्लिमों के बहुसंख्यक होने का


वर्ष 2011 में धार्मिक समुदायों की जनगणना के आंकड़े सामने हैं. इस देश में हिन्दू आज भी सबसे बड़ा धार्मिक समुदाय है, जिसकी आबादी पिछले एक दशक में 13.87 करोड़ बढ़ी है, लेकिन देश की कुल जनसंख्या में उसकी प्रतिशत आबादी में 0.7 प्रतिशत की कमी हुई है. दूसरा सबसे बड़ा समुदाय मुस्लिम है, जिसकी आबादी भी बढ़ी है -- एक दशक में 3.4 करोड़ और उसकी प्रतिशत आबादी भी बढ़ी है 0.8 प्रतिशत. यह हकीकत है. इस वास्तविकता का उपयोग संघी गिरोह अपने उस मिथक को स्थापित करने के लिए कर रहा है, जिससे 'हिन्दू राष्ट्र' निर्माण का उसका लक्ष्य आसान हो. वह मिथक है, निकट भविष्य में मुस्लिम बहुसंख्यक हो जायेंगे और हिन्दू अल्पसंख्यक. इसलिए हे हिन्दुओं ! जागो, अपनी जनसंख्या को बढाओ. घर में भले ही खाने के लिए दाने न हो, लेकिन धर्म को बचाओ और धर्म तभी बचेगा, जब तुम्हारी आबादी बढ़ेगी. लेकिन केवल आबादी बढाने से ही काम नहीं चलेगा, साथ ही मुस्लिमों की आबादी भी कम करनी होगी, उनके धर्म को नष्ट भी करना होगा. इसलिए हे हिन्दुओं, अपना सबसे बड़ा दुश्मन मुस्लिमों को मानो, उन्हें ख़त्म करने के लिए दंगे-फसाद-नफ़रत का ब्रह्मास्त्र चलाओ और इसके बावजूद जो बच रहे, उन्हें पाकिस्तान की राह दिखाओ.

तो ये  धार्मिक असहिष्णुता का अल्पसंख्यक मुस्लिमों के खिलाफ इतना बड़ा वातावरण जो देख रहे हैं न आप, उसकी जड़ों में संघी गिरोह की यही 'बीमार ग्रंथि' है. जो भी आम या ख़ास नागरिक इस बीमारी पर चोट करेंगे, वे इस गिरोह के ख़ास निशाने पर होंगे. वे मारे जायेंगे केवल इस अपराध में कि वे इस देश की बहुलतावादी संस्कृति एवं धर्म-निरपेक्षता की रक्षा के लिए संघी गिरोह की सोच के खिलाफ तनकर खड़े हैं. ऐसे लोगों को वामपंथी कहकर गरियाया जायेगा और खुले-आम सर कलम करने की धमकियां दी जायेंगी. अपनी नस्लवादी सोच के समर्थन में वे ललकार कर कहेंगे -- जरा ऐसी बात पाकिस्तान, ईरान या इराक में कहकर देखें, तुम्हारा क्या हाल होता है !! सन्देश स्पष्ट है. हम भी पाकिस्तान, ईरान और इराक बनने की लाईन में खड़े हैं, आईये इस पुण्य काम में हाथ बंटाएं. संघियों के इस मिथक को तोडना जरूरी है.

भारत के ज्ञात इतिहास में एक धार्मिक समुदाय के रूप में हिन्दू हमेशा ही बहुसंख्यक रहे हैं. संघी गिरोह जिस जिस मुस्लिम शासन को 'अत्याचारी राज्य' के रूप में पेश करता है, वह भी हिन्दुओं को अल्पसंख्यक नहीं बना पाया. अंग्रेजों के राज में भी आबादी के गठन का यह स्वरुप बरकरार रहा. पिछली तीन बार के जनगणना के आंकड़ों पर गौर करें :

धर्म...        कुल जनसंख्या में प्रतिशत...        कुल जनसंख्या (करोड़)...       दशकवार वृद्धि का प्रतिशत
                  1991     2001     2011            2001      2011                 1981-91    91-2001     01-11
हिन्दू.          81.5     80.5      79.8             82.76    96.63                        22.7         19.9         16.8
मुस्लिम       12.6     13.4      14.2.           13.82     17.22.                       32.9         29.3         24.6.

इन आंकड़ों से निम्न बातें स्वतः स्पष्ट है :
1. हिन्दू और मुस्लिम दोनों धार्मिक समुदायों की आबादी में वृद्धि हुई है. आज भी हिन्दुओं की आबादी मुस्लिमों की तुलना में 5.6 गुना से ज्यादा है.
2. पिछले दो दशकों में हिन्दुओं की आबादी की वृद्धि दर में 5.9% की गिरावट आई है, तो मुस्लिमों की वृद्धि दर में गिरावट इससे भी ज्यादा तेज है -- 8.3% की.

इन आंकड़ों के मद्देनजर पहला सवाल तो यही हो सकता है कि यदि हिन्दुओं में दशकीय जनसंख्या वृद्धि दर 16.8% तथा मुस्लिमों में 24.6% बनी रहे, तो कितने सालों बाद दोनों धार्मिक समुदायों की आबादी बराबर होगी? गणित का चक्रवृद्धि सूत्र बताता है कि इसमें कम-से-कम 300 साल लग जायेंगे. 300 साल बाद इस देश में हिन्दुओं की आबादी 102 अरब होगी, तो मुस्लिमों की भी. लेकिन इस पृथ्वी में 204 अरब लोगों के रहने की जगह है? ...और दूसरे देशों के बाकी लोग कहां जायेंगे?? निश्चित ही, जनसंख्या संतुलन का प्राकृतिक सिद्धांत इसकी इज़ाज़त नहीं देता. संघी मिथक वास्तविकता से बहुत-बहुत दूर है.

लेकिन जनसंख्या की वृद्धि दर स्थिर नहीं है. दोनों धार्मिक समुदायों में यह गिरावट जारी है और हिन्दुओं की तुलना में मुस्लिमों में तेज गिरावट जारी है. तो दूसरा सवाल यही हो सकता है कि दोनों समुदायों की जनसंख्या वृद्धि दर कितने सालों बाद शून्य पर आ जाएगी? एक मोटा गणितीय विश्लेषण यही बताता है कि आज से लगभग 60 सालों बाद याने वर्ष 1971 की जनगणना तक दोनों समुदायों की जनसंख्या वृद्धि दर लगभग शून्य होकर जनसंख्या स्थिर हो जाएगी. 'प्यू रिसर्च' की रिपोर्ट के अनुसार तो वास्तव में ऐसा वर्ष 2050 तक ही हो जायेगा.

इससे तीसरा सवाल पैदा होता है, तब दोनों समुदायों की अनुमानित आबादी क्या होगी? वर्ष 2011 की जनसंख्या वृद्धि दर को स्थिर मानें, तो वर्ष 2051 में हिन्दुओं की आबादी 180 करोड़, तो मुस्लिमों की 41 करोड़ होगी. वर्ष 2071 में हिन्दुओं की अनुमानित आबादी 245 करोड़ होगी, तो मुस्लिमों की 65 करोड़ तक ही पहुंचेगी. आज हिन्दू और मुस्लिमों की आबादी में 79.41 करोड़ का अंतर है, तो वर्ष 2071 तक बढ़कर वह 180 करोड़ हो जायेगा.

इसका अर्थ है कि हिन्दू और मुस्लिम दोनों की आबादी बढ़ सकती है, उनकी आबादियों की कुल जनसंख्या में प्रतिशत हिस्सेदारी भी बदल सकती है, लेकिन किसी भी स्थिति में हिन्दू धार्मिक आबादी के 'बहुसंख्यक' होने का चरित्र नहीं बदला जा सकता. इसलिए इस संघी मिथक का कि चूंकि मुस्लिम आबादी की वृद्धि दर हिन्दुओं से ज्यादा है, इसलिए हिन्दू अल्पसंख्यक होने वाले है, का वास्तविकता से कोई लेना-देना नहीं है.

संघी गिरोह भी यह जानता है, लेकिन अपने मिथक को इसलिए प्रचारित करता रहता है कि उसका मूल उद्देश्य 'हिन्दू राष्ट्र' की स्थापना करना है. इसके लिए एक काल्पनिक दुश्मन की हमेशा जरूरत रहती है, जिसके खिलाफ वह हिन्दुओं को भड़काते रह सके. वह इस काल्पनिक दुश्मन को सब वास्तविक समस्याओं की जड़ और हिन्दुओं की बदहाली का कारण बताता है, ताकि देश को सांप्रदायिक आधार पर बांटा जा सके और इसकी गंगा-जमुनी तहजीब और बहुलतावादी परंपराओं को नष्ट किया जा सके. संघी गिरोह के लिए मुस्लिमों को ऐसे दुश्मन के रूप में स्थापित करना बहुत आसान है. इसलिए आज वह उनके खान-पान, रहन-सहन, विचार श्रृंखला सबको निशाना बना रहा है. चाहे बाबरी मस्जिद का विध्वंस हो या गुजरात के दंगे, चाहे दाभोलकर-पानसरे-कलबुर्गी की हत्या हो या इखलाक की और असहिष्णुता की इन घटनाओं के खिलाफ देश में खड़े हो रहे 'प्रतिरोध' आंदोलन को निशाना बनाना -- ये सब उसके 'हिन्दू राष्ट्र' के निर्माण के सजग प्रयास हैं. वह एक ऐसी मानसिकता तैयार करना चाहता है, जो तर्क की जगह आस्था को, संवाद की जगह विवाद को, सहिष्णुता की जगह हिंसा और अतार्किक बहुसंख्यकवादी गोलबंदी को बढ़ावा दे.

जनगणना के आंकड़ों को भारतीय नागरिकों की समूची जनसंख्या में बढ़ोतरी से पेश चुनौती के रूप में देखने के बजाये वह उसे धार्मिक समुदायों के आंकड़ों के सांप्रदायीकरण में इस्तेमाल करता है. वह यह सिद्ध करने में जुट जाता है कि फलां-फलां जगह हिन्दू बहुमत में थे, आज अल्पमत में हो गए. वह इसके सामाजिक-आर्थिक राजनैतिक कारणों को भी देखने से इनकार कर देता है. तब इस खेल में उसके लिए मुस्लिम गैर-राष्ट्रवादी और पाकिस्तानी होते हैं. हालांकि इस गिरोह का भारत से भी कोई लेना-देना नहीं है, क्योंकि भारत को तो वह पाकिस्तान की तर्ज़ पर 'हिंदुस्थान' में बदलने पर आमादा है.

Tuesday 3 November 2015

तू दाल-दाल, मैं पानी-पानी






अरहर दाल

60-65 रूपये किलो की अरहर दाल 200 रूपये पर चल रही है. सवाल है कि किसी भोजनालय को अपना मुनाफा बनाए रखने के लिए दाल में कितना पानी बढ़ाना पड़ेगा? या फिर, पानी में दाल कितनी कम करनी पड़ेगी?? उत्तर भी आसान है — पहले से तीन-चार गुना ज्यादा पानी, या फिर दाल की मात्रा पहले की तिहाई-चौथाई. लेकिन फिर तो पानी में दाल को खोजना पड़ेगा ! लेकिन किसी गृहस्थी में इतनी फुर्सत कहां कि इतना झंझट पाले ! सो. घर की थाली से दाल गायब है और सब्जी के शोरबे से ही काम चलाया जा रहा है या यदि दाल है, तो किसी ‘फीस्ट’ के रूप में हफ्ते में एक बार ! दाल-रोटी अब सब्जी-रोटी में और दाल-भात अब सब्जी-भात में बदल गया है. दाल अब ‘शाही पकवान’ है गरीबों की थाली के लिए.
प्रधानमंत्री मोदी का अर्थशास्त्र भले ही बढ़ती महंगाई को बढ़ती जीडीपी से जोड़ लें, आम आदमी के लिए बढ़ती महंगाई दाल को पतली-और पतली ही करती है तथा थाली में उसके आहार-पोषण में कटौती ही करती है. यही आम आदमी का अर्थशास्त्र है. इस अर्थशास्त्र का आम आदमी के बजट से संबंध समझना हो, तो आप रवीश कुमार का एनडीटीवी में ‘दाल-दाल दिल्ली-दिल्ली’ देखिये. पता चल जायेगा कि मोदी राज में आम आदमी को अपनी पेट की आग को शांत करने के लिए कितने पापड़ बेलने पड़ रहे हैं. वह पचासों किलोमीटर चलकर मिठाई पुल पर सड़ी दाल खरीदने के लिए आ रहा है . यह सड़ी दाल भी इतनी महंगी हो गई है कि खरीदना उसके बस में नहीं रहा. सड़क किनारे के भोजनालय दो किलो दाल सौ लोगों को खिला रहे हैं, भात का माड़ मिलाकर. इससे लोगों का पेट तो भर जाता है, लेकिन पोषण-आहार नहीं मिलता. यदि जीडीपी में वृद्धि दर विकास का मानक है, तो महंगाई के कारण लोगों में बढ़ता कुपोषण, अच्छे खाद्यान्न तक पहुंच से उसकी दूरी विकास के उसके इस दावे की धज्जियां उड़ाने के लिए काफी है. तो फिर यह समझने में कोई देरी नहीं लगेगी कि बढ़ती जीडीपी वास्तव में किसका विकास कर रही है?
दाल के भाव चढ़ने तो अप्रैल से ही शुरू हो गए थे, लेकिन सितम्बर-अक्टूबर में तो वह सर चढ़कर बोलने लगे. अप्रैल में सोई सरकार अक्टूबर में ही हरकत में आई. लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी. इन छः महीनों में सट्टाबाज़ार को जितना खेलना था, खेल चुकी थी. बाज़ार आम जनता को जितना निचोड़ सकता था, उसने निचोड़ लिया. जनता के लुटने-पिटने के बाद सरकार के अर्ध-जागरण का कोई अर्थ नहीं था. जिनकी तिजोरियां भरनी थी, भर चुकी थी. अब छापा मारो या दाल आयात करो, जमाखोरों की सेहत पर न कोई फर्क पड़ना था, न पड़ा. 80000 टन दाल बाहर निकल आई, लेकिन कोई जमाखोर गिरफ्तार नहीं ! 5000 टन दाल आयात हो गई, लेकिन चढ़े दाल के भाव न नीचे उतरने थे, न उतरे. सरकार ने ही आउटलेट्स खोल दिए दाल बेचने के लिए 140 रूपये किलो के भाव से, तो फिर बाज़ार में 200 रूपये से नीचे क्योंकर उतरे? बेचारी मोदी सरकार इससे ज्यादा कर भी क्या सकती थी? अनाज के वायदा व्यापार पर रोक लगाना तो उसके बस की बात नहीं, सो ‘बेचारी सरकार’ से इसकी मांग न की जाएं, तो ही अच्छा. आखिर कार्पोरेट घरानों को वायदा व्यापार से रोकना देश की प्रगति में ग्रहण लगाना ही होगा !! यदि कारपोरेटों का ही विकास नहीं होगा, तो ‘सबका साथ, सबका विकास’ कैसे होगा?
वे लोग तो ‘अकल के अंधे’ ही हो सकते हैं, जो दाल की चढ़ती जवानी को देश के बढ़ते विकास में न समझें. यदि देश विकास कर रहा है, तो लोगों की आय भी बढ़ेगी. इस देश का दुर्भाग्य यह है कि दुनिया के सबसे ज्यादा ‘भुक्खड़’ लोग इसी देश में है. सो आय बढ़ी नहीं कि दौड़ पड़े आलू-प्याज-दाल के लिए. यह नहीं कि कुछ पैसे सट्टाबजार में इन्वेस्ट कर दे, ताकि सटोरियों की भी आय बढ़ें. तो पहले आलू-प्याज उछली. इस उछल-कूद पर ले-देकर सरकार ने कुछ काबू पाया, तो दाल चढ़ने लगी. चढ़ती दाल को रोकने की कोशिश कर रहे हैं कि आलू-प्याज ने फिर हाथ-पैर पटकने शुरू कर दिए हैं. आलू-प्याज-दाल को देखकर बाकी भी क्यों चुप बैठे भला ! त्यौहार का सीजन है, सो चावल-गेंहू-तेल-सब्जी भी दम दिखा रहे हैं. अकेली सरकार क्या-क्या करें? इन सब का दम देखकर बेचारी ‘बेदम’ हुई जा रही है. घोषणा तो छापेमारी की थी, लेकिन जमाखोरों ने दो-तीन दिनों में ही नानी याद दिला दी. आलू-प्याज के बाद अब दालों ने भी कह दिया कि हम जमाखोरों के साथ. चावल-गेहूं-तेल भी उनके गोदामों से बाहर आने को तैयार नहीं. एक को बाहर लाओ, तो दूसरा अंदर. ले-देकर दूसरे को बाहर निकालो, तो बाकी सब फिर अंदर !
तो मित्रों, सरकार की कोशिश तो चल रही हैं. लेकिन ये जनता !? जिस जनता के लिए ये बेचारी सरकार बेदम हो रही है, वही जनता सरकार को कोस रही है. वह जनता सरकार को कोस रही है, जो मांग बढाने के लिए जिम्मेदार है. भला बताईये, आलू-प्याज-दाल खाना जरूरी है !! जनता ही भाव नहीं देगी, तो ये सब गोदाम में पड़े सड़ते थोड़े रहेंगे !! निकलेंगे बाहर, हाथ जोड़कर कहेंगे, माई-बाप ले लो हमें, अपने घर की सैर कराओ, अपनी थाली में हमें सजाओ. हाथ जोड़कर कहेंगे कि हे देशवासियों, हमारी धृष्टता पर हमें माफ़ करो और हमें उदरस्थ करो. तब देखना, इन जमाखोरों के कस-बल कैसे ढीले होते हैं.
लेकिन नहीं ! इस जनता को तो आलू-प्याज-दाल के साथ चावल-गेहूं-तेल भी चाहिए. अरे ये देश ऋषि-मुनियों का है. लेकिन इस देश के आध्यात्मवाद पर अब तो भौतिकवाद हावी हो चुका हैं. कहां तो ऋषि-मुनि कंद-मूल खाकर या निर्जला उपवास रखकर सालों कठिन तपस्या करते थे. कहां यह भुक्खड़ जनता कि काम करने के लिए उसे चावल-गेहूं-तेल-दाल ही चाहिए. कंद-मूल का तो वह नाम भी नहीं लेना चाहती. कंद-मूलों ने इस ‘मनस्वी’ देश को आध्यात्मवाद की बहार दी, तो गेहूं-चावल-दाल ने इस देश को भौतिकवाद का रोग ही दिया. तो इस देश की रूग्ण जनता को खाने-पीने के सिवा कुछ दिखता नहीं, वर्ना बात-बात पर वह आत्महत्या करने की धमकी देने लगती है. पिछले ढाई दशक में तीन लाख से ज्यादा लोगों ने ऐसा करके भी दिखा दिया.
तो नागरिक बंधुओं, इस देश की गौरवशाली संस्कृति, सनातनी परंपरा और वैदिक सभ्यता को याद रखो. याद रखो कि हमारा उन्नयन इसी में निहित है. हमारी सरकार इसी संस्कृति, परंपरा और सभ्यता को आगे बढाने में लगी है. इसलिए हे आर्यपुत्रो, महंगाई का रोना छोड़ो — देखो कि कौन गौ-मांस खा रहा है? हे आर्यपुत्रों, केवल हिन्दू धर्म को याद रखो — देखो कि कौन-सा विदेशी धर्म इस पवित्र भूमि को अपनी जनसंख्या बढ़ाकर कब्ज़ा करने की कोशिश कर रहा है. हे आर्यपुत्रों, धर्मनिरपेक्षता को छोड़ो — देखो कि कहां दंगे किये-फैलाए जा सकते हैं? हे आर्यपुत्रों, केवल ब्राह्मणों की पूजा करो — म्लेच्छों का या तो संहार करो या फिर उन्हें ब्राह्मणों की सेवा में लगाओं !!
हे हिन्दूराष्ट्र के ध्वजवाहकों, अपने अध्यात्मवाद को जगाओ. अरे यार, इतना भी दाल-दाल न चिल्लाओ कि हमारी हिन्दू सरकार को शर्म से पानी-पानी होना पड़े.