Friday 2 December 2016

नोटबंदी या देशबंदी !?


संसद सत्र शुरू होने के एक सप्ताह पहले 500 और 1000 रूपये के नोटों को बंद करने की प्रधानमंत्री द्वारा घोषणा की गई. इन नोटों पर रिज़र्व बैंक के गवर्नर ने धारक को जो मूल्य अदा करने का वचन दिया है, वह धरा रह गया. इस नोटबंदी के लिए रिज़र्व बैंक की गवर्निंग बॉडी तक से नहीं पूछा गया. सवाल पूछा जाना चाहिए कि प्रधानमंत्री की घोषणा बड़ी या रिज़र्व बैंक के गवर्नर द्वारा धारक को दिया गया वचन? व्यवहार में संदेश स्पष्ट है – प्रधानमंत्री की घोषणा. रिज़र्व बैंक की स्वायत्तता को उसी तरह हाशिये पर डाल दिया गया, जिस तरह नगर निकायों, पंचायतों और ग्रामसभाओं की स्वायत्तता को दरकिनार करने का चलन हो गया है. केन्द्र सरकार की नज़र में देश की अर्थव्यवस्था के संचालन में रिज़र्व बैंक की भूमिका किसी शहर के संचालन में नगर निगम की भूमिका से ज्यादा बड़ी नहीं रह गई है. बैंक के संघ-चयनित गवर्नर ऊर्जित पटेल पूरी तरह से मौन हैं. ऐसे मौन की अपेक्षा मोदी पूर्व-गवर्नर रघुराम जी. राजन से नहीं कर सकते थे, जिसके कारण वे हमेशा केंद्र सरकार और संघी गिरोह की आंख की किरकिरी बने रहे थे. वे वामपंथी नहीं थे, लेकिन वामपंथी होने का तब उन पर आरोप भी लगाया गया था और एक तरह से उन्हें एक्सटेंशन देने से मना कर दिया गया.
लेकिन यह केवल रिज़र्व बैंक की भूमिका का नकार नहीं है, संसद की हिकारत भी है. मान्य संसदीय परंपरा यही है कि संसद सत्र आहूत किये जाने के बाद ऐसी कोई भी घोषणा, जिसका जनजीवन पर व्यापक असर पड़े, संसद के भीतर ही की जाएं. लेकिन कोई ‘तानाशाह’ ऐसे ही काम करता है – संसदीय परंपराओं और जनतांत्रिक संस्थाओं की स्वायत्तता को दरकिनार करते हुए – देश की जनता के सामने एक ऐसे ‘अवतार’ के रूप में सामने आता है कि वह अकेला ‘धर्मयुद्ध’ लड़ रहा है. नोटबंदी करते हुए उन्होंने भ्रष्टाचार और काले धन के खिलाफ ‘धर्मयुद्ध’ लड़ने की घोषणा की. लेकिन इस ‘धर्मयुद्ध’ में ऐसा कोई नहीं मरा, जो भ्रष्टाचारी हो; किसी ऐसे आदमी का हार्ट फ़ैल नहीं हुआ, जिसके पास अकूत काला धन हो. इस ‘धर्मयुद्ध’ में 100 से ज्यादा वे निर्दोष नागरिक मारे गए, जिनके पास काला धन तो क्या, अपना कहने के लिए ‘सफ़ेद धन’ तक नहीं था. वे बस इस ‘महान’ देश के ‘दुर्भाग्यशाली’ नागरिक थे, जो केवल अपना और अपने परिवार का पेट पालने की जद्दोजहद में लगे थे और जिसकी कोई आवाज़ सत्ता के गलियारों में नहीं गूंजती. जिनके खिलाफ कथित ‘धर्मयुद्ध’ छेड़ने की घोषणा की गई, वे 500 व 2000 रुपये के नए बंडलों के साथ खेल रहे हैं. उन्होंने नोटबंदी की घोषणा के पहले ही अपने पुराने नोटों को ठिकाने लगा दिया था – जमीन-जायदाद, शेयर और सोना खरीदकर. बचे-खुचे नोटों को भी ठिकाने लगाने के मौके कम नहीं थे. आप इन नोटों से अपनी जरूरत की रोजमर्रा की चीजें भले ही न खरीद पा रहे हों, लेकिन रिज़र्व बैंक का गवर्नर ‘खाए-पिये-अघाए’ लोगों को हवाई जहाज से सैर कराने और मॉल की महंगी सिनेमा टिकटों को खरीदवाने का वचन जरूर दे रहा था. कुछ सिरफिरों ने जरूर गंगा में नोट बहाकर पुण्य कमा लिया – लेकिन ऐसे ‘हतभागी’ थे भी कितने. जो बचे हैं, आज भी उनके लिए 50% या 85% टैक्स देकर ‘काले’ को ‘सफ़ेद’ करने के मौके हैं. ऐसा मौका पहली बार नहीं आया है – और साफ़ है कि यह अंतिम मौका भी नहीं होगा. उनको मालूम है कि हर आने वाली सरकार ऐसी योजनाएं उनके लिए ‘उपहार’ में लाती रहेगी. इसलिए खूब भ्रष्टाचार करो, बैंकों से करोड़ों-अरबों रूपये क़र्ज़ लेकर उसे पटाने से इंकार करो, इस ‘काले धंधे’ से और-और ‘काला धन’ पैदा करो; इस काले धन से ऐश करो, गुलछर्रे उड़ाओ, सैर-सपाटे करो, जरूरत पड़े तो देश छोड़कर भाग जाओ और उस वक़्त का इंतजार करो, जब सरकारें काले को सफ़ेद करने की ‘उपहार योजना’ लेकर आयें. यदि आप करोड़ों में खेल रहे हैं, तो डरिये मत, इस देश के सम्मानित नागरिक की तरह सरकार आपके साथ पेश आएगी. अपनी ‘काली कमाई’ का एक हिस्सा ‘सरकार-देवता’ के चरणों में समर्पित करो और बाकी का आजीवन निर्भीक सुख भोगने का पुण्य कमाओ. और यदि करोड़ों में खेलने की औकात आप में नहीं हैं, तो कुर्की-हरजाना-विस्थापन-जेल की सजा भुगतने के लिए तैयार रहो. संदेश साफ़ है -- जिनके पास काला धन नहीं, वह सम्मान पाने का भी हकदार नहीं. जो धन इन सम्मानित सरकारों और पार्टियों को चलाने में काम न आये, उसे ‘सम्मान’ का दावा भी नहीं करना चाहिए.
इस कथित ’धर्मयुद्ध’ में सरकार की ओर से लड़ते हुए जो सौ लोग मरे, उनको ‘श्रद्धांजलि’ देने तक की फुर्सत इस देश की संसद को नहीं है और न ही सरकारी कारिंदों को कि इन ‘शहीदों’ के घरों तक जाकर सहानुभूति ही प्रकट कर आये. इन बर्बाद परिवारों की देखभाल का जिम्मा लेने की बात ही कौन करें! वैसे भी जिन लोगों के खरीदने की ताकत 20 रूपये रोजाना की न हो, उनकी ‘शहादत’ का मूल्य क्या हो सकता है? – और हमारे देश की सरकारी रपट कहती है कि ऐसे लोगों की संख्या इस देश में 86 करोड़ हैं.
तो बताईये, हमारे प्रधानमंत्री ने क्या गलत किया 86% नोटों को चलन से बाहर करके? इन लोगों को पहले सफाई देनी चहिये कि वे कतारों में लगे ही क्यों थे? और यदि लगे थे, तो उनके पास इतने बड़े-बड़े नोट कहां से आये? सरकार ने मेहनत की, उनके जन-धन के खाते खुलवाए, तब भी इन ‘बकरों’ के पास इन खातों में जमा करने के लिए फूटी कौड़ी न थी. सरकार को ही इन खातों में जमा करने के लिए अपनी जेब से एक-एक रूपये देने पड़े कि दुनिया में हमारी किरकिरी न हो कि 25-26 करोड़ खातों में एक पैसा नहीं, इतना भूख-नंगा देश ! तब इन लोगों के पास न देश के सम्मान का ख्याल था, न देशभक्ति का.
और देखो, नोटबंदी होते ही उमड़ पड़े 500-1000 का नोट लेकर. जिसे देखो, वही पकड़े लाइन में खड़ा. जिन हाथों में 10-20 के नोट होना था, उन हाथों में इत्ता बड़ा नोट! जिन खातों में फूटी कौड़ी नहीं, उसमे 10-15 दिनों में ही 75000 करोड़ रुपया जमा!! क्या कोई टाटा लाइन में लगा, क्या कोई बिड़ला गश खाकर गिरा, क्या कोई अंबानी मरा!!! प्रधानमंत्री को मालूम था कि असली काला धन गड़ा कहां है और यह तो उनकी 56 इंची छाती का ही कमाल है कि इतना काला धन एक झटके में निकलवा लें. और किसी सरकार में था ऐसा दम? – अरे भई, अब दम मारो दम कि मिट जाए गम.
तो जो गमों में डूबे हैं, उन्हें दम मारने दो. चिल्लाने दो संसद में विपक्ष को. इस देश की सत्ता में हम हैं. हम नोटबंदी करें या देशबंदी – पूरा देश हमारे साथ हैं. अर्थव्यवस्था गर्त में जा रही है, तो जाने दो – पूरा देश हमारे साथ हैं. रोजगार ख़त्म हो रहे हैं, तो होने दो – पूरा देश हमारे साथ हैं. खेती-किसानी बर्बाद हो रही है, तो होने दो – पूरा देश हमारे साथ हैं. शादी-ब्याह रूक रहे हैं, तो रूकने दो – पूरा देश हमारे साथ हैं. राष्ट्रप्रेम और देशभक्ति का तकाजा यही है कि देश हमारे साथ हो.
अभी तो ये नोटबंदी हैं प्यारे! आटा-टाटा-बाटा, रिलायंस-चन्द्रा-माल्या सहित पूरा देश हमारे साथ हैं. कल को हम ‘देशबंदी’ भी करेंगे, तो देखना – देश हमारे साथ ही होगा. हमें ‘हिन्दू राष्ट्र’ की स्थापना के लिए नोटबंदी करनी पड़े या देशबंदी – करेंगे जरूर. ‘देशबंदी’ में जो हमारे साथ नहीं होगा, ऐसे ‘देशद्रोहियों’ से निपटने के लिए हमारी संघी लाठी ही काफी होगी! आखिर हम हिटलर के वंशज जो ठहरे.

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