Friday 26 May 2017

जुमलेबाजी के तीन साल

तीन साल बाद भाजपा का '2 करोड़ लोगों को हर साल काम' देने का वादा 'जुमला' साबित हो गया. अमित शाह ने कह दिया कि सबको काम देना संभव नहीं है, लोग स्व-रोजगार खोजे. भारतीय युवाओं के लिए इससे बड़ा छल और कुछ नहीं हो सकता, जिन्होंने संप्रग सरकार की रोजगार विरोधी नीतियों से तंग आकर मोदी का साथ दिया था और आज भी यह आशा लगाये हुए हैं कि 'डिजिटल इंडिया' से लेकर 'मेक इन इंडिया' तक की कसरत कल उनके लिए छप्पर-फाड़ रोजगार पैदा करेगी. अब तो अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन का यह दावा ही हकीकत है कि वर्ष 2016 में भारत में 1.77 करोड़ लोग बेरोजगार थे, तो वर्ष 2018 में उनकी संख्या बढ़कर 1.80 करोड़ हो जायेगी. हर साल रोजगार के बाज़ार में 2 लारोड़ नौजवान कदम रखते हैं, लेकिन पिछले वर्ष काम मिला केवल 1.35 लाख लोगों को ही -- मोदी सरकार का श्रम विभाग भी यही बता रहा है.

लेकिन मोदी ने केवल नौजवानों के साथ ही जुमलेबाजी नहीं की, किसान भी इससे अछूते नहीं रहे, जिनसे ये वादा किया गया था कि उनकी फसल का एक-एक दाना लागत मूल्य से डेढ़ गुना कीमत पर सरकार खरीदेगी. किसानों ने क़र्ज़ लेकर बम्पर उत्पादन किया और फसल लेकर मंडी पहुंचते, उससे पहले ही सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर कह दिया कि सरकार के लिए इतना पैसा देना संभव नहीं. तब किसानों के लिए आत्महत्या के सिवा और चारा भी क्या था? सो. मोदी-राज में किसान आत्महत्याएं डेढ़ गुना बढ़नी ही थी. वादा तो 'किसानों की क़र्ज़मुक्ति' का था, लेकिन बैंकों के क़र्ज़ माफ़ हुए माल्या-जैसे पूंजीपतियों के. हर बजट में 5 लाख करोड़ की कर-छूट के साथ ही 6-7 लाख करोड़ बैंकों के भी एनपीए बनाकर उन्होंने हड़प लिए हैं. लेकिन ऐसा कोई वादा मोदी ने अपने चुनाव प्रचार के दौरान धनकुबेरों से नहीं किया था.

सो वादे तो 'जुमलेबाजी' के लिए होते हैं. असली वादे तो वही होते हैं, जो घोषणापत्र में लिखे नहीं जाएं, लेकिन जिसके बारे में चुनाव में धन लगाने वाले जानते हो कि उनका 'इन्वेस्टमेंट' कब और कितना 'रिटर्न' देगा.

इसीलिए यदि हिन्दी अखबारों का सर्वे यदि कहता है कि 59% लोग मानते हैं कि मोदी के आने से उनके जीवन-स्तर में कोई सुधार नहीं हुआ, तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है. 'सबका विकास' तो विज्ञापन था, असलियत यही है कि आदिवासियों पर नक्सलियों के नाम पर, दलितों को गाय के नाम पर, मुस्लिमों को बाबर का औलाद बताकर, तो ईसाईयों पर धर्मांतरण के नाम पर हमले कई गुना बढ़ गए हैं. हमलावरों में भगवा कच्छाधारी बड़े पैमाने पर शामिल होते हैं और पुलिस अधिकारीयों की नाक के नीचे हंगामा करके फरार हो जाते हैं. 'हिन्दू राष्ट्र' की मुहिम को आगे बढ़ाने के लिए जरूरी है कि जनतंत्र, सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता को पैरों तले कुचला जाएं और हिटलर-मुसोलिनी की तरह नस्लीय, धार्मिक घृणा फैलाई जाएं.

लोगों को यदि शिक्षा नहीं दोगे, स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित रखोगे, उनके श्रम का उचित मूल्य नहीं दोगे, रोजगार से वंचित रखोगे, तो जो असंतोष पैदा होगा, उससे निपटने के लिए धर्म और जाति के आधार पर लोगों को बांटने के सिवा और कोई विकल्प नहीं बचता. मोदी महाशय यही कर रहे हैं. हर तानाशाह अपनी गद्दी बचाने के लिए यही करता है. फिलहाल संघी गिरोह इसमें सफल हैं. इसी सफलता का जश्न आज से वे मना रहे हैं. लेकिन लोगों की कब्र पर ऐसा जश्न उन्हें ही मुबारक, जो मांस-भक्षण पर तो पाबंदी लगाना चाहते हैं, लेकिन लोगों की हत्याएं करते, निरपराध महिलाओं का गर्भ चीरकर अजन्मे बच्चे को तलवार की नोंक पर घुमाते जिनके हाथ जरा भी नहीं कांपते.

Thursday 25 May 2017

'हिन्दू राष्ट्र' के हवन कुंड में "आदिवासी स्वाहा" के लिए कल्लूरी का आमंत्रण....


"दिल्ली में बैठकर कोई बस्तर की समस्या को नहीं समझ सकता. इसके लिए दिल्ली में बैठे जिम्मेदार लोगों को बस्तर में जाने की जरूरत है." -- ये कहना था आईजी एसआरपी कल्लूरी का दिल्ली के जन संचार संस्थान (आइआइएमसी) में. दिल्ली के 'नासमझों' को बस्तर से चलकर यही समझाने आये थे वे, लेकिन प्रचार तो ऐसा था जैसे वे नक्सलियों के 'शहरी नेटवर्क' का पर्दाफ़ाश करने जा रहे हैं. लेकिन खोदा पहाड़, निकली चुहिया!! उनके भाषण का न तो उनके विषय से कोई संबंध था, न ही उनकी कथनी-करनी से. वैसे ये सवाल भी पलटकर पूछा जा सकता है कि बस्तर में बैठकर दिल्ली के नेटवर्क को समझने की उनमें कितनी अक्ल है?
लेकिन बस्तर दौरे का आमंत्रण नंदिनी सुन्दर या अर्चना प्रसाद के लिए नहीं है, क्योंकि न ही वे "बैठे" हैं और न ही "जिम्मेदार". 'दिल्ली में बैठे जिम्मेदार लोगों' की पहचान भी रमनसिंह के साथ मिलकर कल्लूरी ही करेंगे. पहचाने वही जायेंगे, जो रमन-कल्लूरी के दिखाए को देखेंगे, जो उनके कहे को सुनेंगे और जो उनके सुनाये को बतायेंगे. इसलिए उनकी पहचान उस संघी गिरोह के बाहर नहीं हो सकती, जो आजकल सेक्स रैकेट चलाने के नाम पर प्रसिद्धि पा रहे हैं. पिछले दिनों कन्हैया कुमार के मामले में उन्होंने नाम कमाया था. आजकल अरूंधती रे और शहला राशिद को गाली-गलौज करने में पूरे नंगे हो रहे हैं. देश का सवाल है और उसकी भक्ति का भी. देशभक्ति के लिए नंगे होने में कोई हर्ज़ नहीं है. इसी 'देशभक्ति' को दर्शाने के लिए कल्लूरी ने महिलाओं को 'फ़क यू' का संदेशा भिजवाया था. ये देश हिन्दुओं का है और उनकी रक्षा करने के लिए 'राष्ट्रविरोधियों' को 'फक' करना उनका पूरा-पूरा संवैधानिक अधिकार है!!!
तो बस्तर में जाने की इज़ाज़त केवल 'राष्ट्र भक्तों' को ही मिल सकती है. पहले 'राष्ट्र भक्त' है एबीवीपी के अध्यक्ष सौरभ कुमार, जिन्होंने कल्लूरी से प्रेरणा ली है और बस्तर की समस्या को समझने के लिए वहां कूच कर गए हैं. अब वे क्या समाधान खोदकर लाते हैं, यह तो बाद की बात है, लेकिन लगे हाथों जेएनयू में भाषण पेलने का निमंत्रण दे आये है. आखिर, हिन्दू संस्कृति में आमंत्रण का जवाब निमंत्रण ही तो होता है.
तो कल्लूरी, अबकी बार चूकना मत. तुम्हारे हाथ में सबूत हो या न हो, न हो तो फर्जी सबूत गढ़ने की पुलिसिया ट्रेनिंग का इस्तेमाल करना, लेकिन नंदिनी सुन्दर और अर्चना प्रसाद को गिरफ्तार करके जरूर लाना. अपनी वर्दी पर एकाध मैडल टांगना हो तो जीप की बोनट पर बांधकर लाना. 'राष्ट्र विरोधियों' से निपटने का एक नायाब तरीका हमारे देश की सेना ने खोजा है. उसका इस्तेमाल करना हर राष्ट्रभक्त 'ठोले' का कर्तव्य है. जब तक दिल्ली में ये बने रहेंगे, किसी आयोग, किसी कोर्ट या किसी ब्यूरो की उछलकूद जारी रहेगी.
मत चूकना कल्लूरी. इलाके बदलने से इरादे नहीं बदलते, इसे फील्ड में भी दिखाना होगा. इरादे नहीं बदलने वाले ही उंचाईयों पर चढ़ते हैं. टाटा-बिडला-अडानी-अंबानी-जिंदल की सेवा ही 'राष्ट्र की सेवा' है. 'राष्ट्रभक्ति' का तकाज़ा है कि सभी आदिवासियों को माओवादी बताओ, आदिवासियों और उनके अधिकारों की बात करने वालों को माओवादियों के शहरी नेटवर्क का हिस्सा बताओ. जो इस 'बताओ अभियान' में बाधा डाले, ऐसे 'देशद्रोहियों' को कीड़े-मकोड़ों की तरह मसल देना चाहिए. जो आदिवासियों के जीवन की बात करें, जो उनके लिए बनाए गए कानूनों के पालन की बात करें, जो जवानों पर हत्या-बलात्कार-आगजनी के आरोपों का सबूत जुटाए, वे आखिर 'राष्ट्रभक्त' कैसे हो सकते हैं? ऐसे लोगों को गोलियों से उड़ा देना चाहिए. इन्हें सबक सीखाना राष्ट्रभक्तों का 'परम कर्तव्य' हैं.
मत चूकना चौहान. मौका सुनहरा है मोदी-राजनाथ-जेटली-रमन की नज़रों में चढ़ने का. जेएनयू 'राष्ट्रद्रोहियों' का सबसे बड़ा गढ़ है. इस पर जो हमला करेगा, संघी गिरोह की नज़रों में उतना ही चढ़ेगा. इस चढ़ाई पर पूरी दुनिया की नज़र पड़ेगी. न भी पड़े, तो ट्रम्प की तो जरूर पड़ेगी. आखिर हमारे मोदी सहित पूरी दुनिया के बादशाह उसकी नज़रों में चढ़ने को बेताब हैं. ट्रम्प की नज़र पड़ी, तो शायद काबिलियत को पहचान ले और अपनी पुलिस का ही सरताज बना दे. हम भी गर्व से कह सकेंगे, बस्तर का अनुभव पूरे अमेरिका को रास्ता दिखा रहा है.
और हां, दिल्ली में बैठी सुप्रीम कोर्ट को न छोड़ना. इसी 'राष्ट्रविरोधी' संस्था ने 'सलवा जुडूम' के मंसूबों को ध्वस्त किया है. उस मानवाधिकार आयोग को भी मत छोड़ना, जिसने बलात्कारों के खिलाफ आदिवासी-पीड़ा को जबान दी. और उस सीबीआई को तो छोड़ना ही मत, जिसने रमन-मोदी के प्रति 'भक्ति' निभाने के बजाये ताड़मेटला के धुएं को पूरे देश में फैलाने का 'राष्ट्र विरोधी' काम किया. आखिर हमारी बिल्ली, हमसे ही म्याऊं!! उस 'राष्ट्र विरोधी' एडिटर्स गिल्ड को भी मत छोड़ना, जिसने कल्लूरी-राज में पत्रकारों के दमन पर अपनी मुहर लगाई है. इन सबको जेएनयू में ही देख लेने का मौका सौरभ हमें दे रहे हैं. हे सौरभ, ऐसे विरल मौके दिलाने के लिए तुमको शत-शत नमन!!!
मत चूकना कल्लूरी. इस देश की सभी राष्ट्रविरोधी संस्थाओं को ध्वस्त करना है.इनका विनाश ही इस देश के आदिवासी-दलितों को उनकी औकात बताएगा. नंदिनी-अर्चना की अक्ल को ठिकाने लगायेगा. आइआइएमसी में जो हवन जलाया गया है, उसमें इन सबको स्वाहा करना है. "स्वाहा-स्वाहा" का यह खेल ही 'हिन्दू राष्ट्र' का निर्माण करेगा. आओ, मौका अच्छा है. 'हिन्दू राष्ट्र' के हवन कुंड में "स्वाहा-स्वाहा" करते अपने हाथ सेंक लें और जेब भी.

Monday 22 May 2017

रस्सी जल गई, लेकिन ऐंठ नहीं गई...बेचारा कल्लूरी!!


उनके किये अपराधों से रमन सरकार भी शर्मिंदगी महसूस कर रही है. इसी कारण बस्तर से हटाकर रायपुर लाया गया. रायपुर में भी निठल्ले बैठे हुए है. सरकार को उनकी काबिलियत की परवाह होती, तो शहरी नेटवर्क को ही ध्वस्त करने का काम दे सकती थी. लेकिन इस सरकार को उनका निठल्लापन पसंद है, लेकिन काबिलियत नहीं. यह सरकार कई निठल्लों को बैठे-बैठाए पगार दे रही है, उसमें एक की बढ़ोतरी और हुई!!
हरिशंकर परसाई ने 'निठल्ले की डायरी' लिखकर खूब नाम कमाया. वे बुद्धिजीवी थे. ये महाशय भी अपने निठल्लेपन का बखान कर सकते है. लेकिन ये बेचारे परसाई-जैसे बुद्धिजीवी नहीं है कि निठल्ले-समय पर अपने अक्ल को रोप सके. वैसे कार्पोरेट सेवा में अक्ल का क्या काम!! अक्ल लगाने से 'मेवा' से भी वंचित होना पड़ेगा. रौब-रुतबे से वंचित तो उस सरकार ने कर ही दिया है, जिसकी जी-हुजूरी करने में पूरी जिन्दगी बिता दी.
लेकिन निठल्ले-समय का उपयोग तो करना ही था. मानवाधिकार आयोग में पेशी में हाजिर होने का समय भले ही न मिला हो, लेकिन आईआईएमसी में भाषण देने के लिए वक़्त तो है ही. बाहर भले ही 'मुर्दाबाद' के नारे लग रहे हो, लेकिन इसी शहरी नेटवर्क के खिलाफ तो उनकी लड़ाई है. ये तो वक्त-वक्त की बात है. आज तो वे सिर्फ नारे सुन रहे हैं, कल तक तो वे ऐसे लोगों को गोलियों से भून रहे थे. नारे लगाना भी कोई बहादुरी है बच्चू...!!!
सो, उधर वे नारे लगा रहे थे, इधर वे 'हवन' में आदिवासियों को स्वाहा कर रहे थे. बता रहे थे कि बस्तर का आदिवासी गरीब और भूखा नहीं है. इसलिए उसको क्रांति की जरूरत भी नहीं है. कितना गहरा और विषद शोध और अध्ययन है कल्लूरीजी का. ऐसे ज्ञान पर कौन नहीं मर मिटेगा!!! अब रमन सरकार को चाहिए कि तमाम आदिवासी योजनाओं को बंद कर दे. आदिवासियों की कथित सेवा के नाम पर जो कल्याण आश्रम आरएसएस (-- रैकेट ऑफ़ सेक्स स्कैंडल्स --) ने खोल रखे है, उन्हें बंद कर दे. इससे आदिवासियों की हजारों करोड़ रुपयों की हथियाई गई भूमि भी मुक्त हो जायेगी.
बस्तर में न तो आदिवासियों को क्रांति की जरूरत है, न कल्लूरी को. तो फिर कल्लूरी महोदय किसकी सेवा कर रहे है? स्पष्ट है, उन लोगों की जिनको प्रतिक्रांति की जरूरत है. वे टाटा-बिडला-अडानी-अंबानी-जिंदल की सेवा कर रहे है. उन्हें आदिवासियों की जमीन चाहिए, उन्हें वहां की नदियों का बहता पानी चाहिए, उन्हें उनके जंगल चाहिए, उन्हें वह सब कुछ चाहिए जो उनके जंगलों में दबा पडा है. इस सब को पाने के लिए बस्तर के जंगलों से आदिवासियों को भगाना जरूरी है. इसके लिए कल्लूरी जरूरी है. कल्लूरी के इरादों को मजबूत करने के लिए भाजपा-आरएसएस जरूरी है. सुप्रीम कोर्ट क सलवा जुडूम पर निर्णय इसी जरूरत का पर्दाफाश करता है. कोर्ट इसे 'कार्पोरेट आतंकवाद' का नाम देता है.
लेकिन कल्लूरी महाशय के लिए इस देश का कानून-कोर्ट-संविधान कोई महत्व नहीं रखता. वे ही संविधान हैं, वे ही कानून, वे ही अदालत हैं और वे ही जज. अभियोग और मुक़दमा चलाने वाली पुलिस तो खैर वे है ही. तो भाई साहब, जो कल्लूरी से पंगा लेगा, उसकी खैर नहीं. नंदिनी सुन्दर, अर्चना प्रसाद, संजय पराते आदियों की गिरफ़्तारी पर भले ही सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा रखी हो, लेकिन उन्हें जब-तब गिरफ्तार करने की धमकी-चमकी तो दी ही जा सकती है. कौन झूठा और कौन सच्चा -- इसका सर्टिफिकेट तो बांटा ही जा सकता है. कोर्ट और मानवाधिकार आयोग के सामने पेश होते भले ही चड्डी गीली होती हो, लेकिन टीवी में बहादुरी दिखाने में, महिलाओं को 'फ़क यू' का मेसेज करने में उनकी अक्ल का जाता क्या है?
तो दिल्ली में कल्लूरी महाशय ने शहरी नेटवर्क को खूब गरियाया. लेकिन नक्सलियों के नाम पर जिन निर्दोष आदिवासियों को उन्होंने जेलों में कैद करके रखा है, उस पर वे चुप थे. उनके बहादुर सैनिकों ने जिन गांवों को जलाया, जिन महिलाओं से बलात्कार किया, जिन नौजवानों की हत्याएं की और मानवाधिकार आयोग ने जिन आरोपों की पुष्टि की है, उस पर बेचारे मौन ही रहे. अपने राज में हुए फर्जी मुठभेड़ों और फर्जी आत्मसमर्पणों पर उनको चुप ही रहना था. बस्तर में पूरा लोकतंत्र और मानवाधिकार सैनिक बूटों के नीचे कराह रहा है, उस पर वे चुप ही रहेंगे. हमें तो लगता था कि आरोप मानकर ही वे इसका खंडन कर देते, लेकिन ऐसी हिम्मत 'कार्पोरेट दल्लों' में नहीं होती.
तो हे कल्लूरी, तुम्हारी धमकी-चमकी-बदतमीजी से नक्सली डर सकते है, वे लोग नहीं, जो इस देश में लोकतंत्र और संविधान को बचाने की, इस देश के आम नागरिकों को कार्पोरेट लूट से बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं. याद रखो, इस देश की जनता भगतसिंह को याद करती है, जनरल डायर को नहीं. हम जानते हैं कि रस्सी जलने के बाद भी ऐंठ नहीं जाती, लेकिन उसमें कोई बल भी नहीं होता.

Saturday 8 April 2017

उत्तरप्रदेश में कर्जमाफी का 'जुमला' : विज्ञापनी दावे से 6 गुना ज्यादा घटिया है यह माल

उत्तरप्रदेश में कर्जमाफी एक बार फिर 'चुनावी जुमला' ही साबित होने जा रहा है. चुनावों के दौरान यह प्रधानमंत्री का वादा था कि सत्ता में आने के बाद किसानों के कर्जे माफ़ किये जायेंगे -- साफ़ संदेश था कि गरीब किसानों पर चढ़े कर्जों से उन्हें पूरी तरह मुक्त किया जाएगा. कर्जमाफी के इस वादे में किसी तरह की सीलिंग की शर्त नहीं थी.
उत्तरप्रदेश में 2.15 करोड गरीब (सीमांत व लघु) किसान हैं. इन पर बैंकिंग कर्जा ही 86214 करोड़ रुपयों का है -- यानि हर गरीब किसान पर 1.34 लाख रुपयों का क़र्ज़ लदा है. लेकिन 'एक लाख रुपये तक कर्जमाफी' के आकर्षक रैपर के साथ इन किसानों के केवल 30729 करोड़ रूपये ही माफ़ किये गए -- औसतन केवल 14292 रूपये ही!! राजनीति की भाषा में कहें, तो यह कदम एक बार फिर 'चुनावी जुमला' ही साबित हुआ है -- और बाज़ार की भाषा में कहें, तो माल विज्ञापन के दावों से 6 गुना ज्यादा 'घटिया' निकला!!!
स्पष्ट है कि गरीब किसानों की हालत में इस पैकेज का कोई सकारात्मक असर नहीं होने जा रहा है, क्योंकि ऐसे किसान बहुत ही कम होंगे जो पूर्णतः कर्जमुक्त हो रहे होंगे. गरीबों के सिर पर बैंकों की 'कुर्की' की तलवार लटकी रहेगी. इससे बचने की कोशिश करेंगे, तो उन पर 'महाजनी क़र्ज़' का फंदा और कसेगा.
कर्जमाफी का वादा प्रधानमंत्री का था. लेकिन कर्जमुक्ति के लिए केन्द्र से कोई मदद नहीं -- पूरा भार राज्य सरकार पर. राज्य अपनी आर्थिक स्थिति खराब होने का रोना रोयेगा, तो बैंक अपने दिवालिया होने की आशंका में सिर पीटेंगे. और यह सब किया जाएगा किसानों पर अहसान जताते हुए, उससे हमदर्दी के नाम पर. उधर फिर बड़े पूंजीपतियों और कार्पोरेट तबकों को लाखों करोड़ रुपयों की चपचाप 'कर्जमाफी' दे दी जायेगी, लाखों करोड़ रुपयों का उन्होंने बैंकों से जो क़र्ज़ ले रखा है, उसे 'बट्टेखाते' में डालकर उन्हें उपकृत कर दिया जाएगा.
तो मित्रो, जुमले तो गरीबों के लिए ही होते हैं और इन जुमलों की शोरबाजी में फायदा तो कुछ लोगों को ही होता है. ये वही लोग हैं, जो आजकल कांग्रेस-भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टियों और केन्द्र व राज्य की सत्ता का संचालन कर रहे हैं. ये वही लोग हैं, जो अपने चुनावी बांडों के जरिये बिना किसी सार्वजनिक जानकारी के अरबों रूपये इन पार्टियों की तिजोरियों में पहुंचा रहे हैं, क्योंकि उन्हें मालूम है कि इस देश में वास्तव में कर्जमाफी किसकी होनी है. ... और यह पूरी कसरत की जा रही है फिर से वर्ष 2018 में ताजपोशी के लिए.

Thursday 23 February 2017

एक संकुचनकारी बजट : गांव-गरीब जपना, कॉर्पोरेट सेवा करना

केन्द्रीय बजट 2017-18 पर नोटबंदी के दुष्परिणामों की छाया स्पष्ट है. पिछले वर्ष के आर्थिक सर्वेक्षण में वर्ष 2016-17 में आर्थिक विकास दर 7.75% रहने का अनुमान लगाया था. बजट कहता है कि इस विकास दर को हम प्राप्त नहीं कर पाए और वित्तीय वर्ष 2016-17 के अंतिम आंकड़े 6% पर आकर टिक जायेंगे. लेकिन जो सरकार सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में वृद्धि दर को ही अपनी सफलता की कसौटी मानती है, उसे यदि इसी कसौटी पर कसा जाएं, तो यह एक संकुचनकारी बजट है, क्योंकि पिछले वर्ष का संशोधित बजट आकार कुल जीडीपी का 13.4% था, तो इस बार का बजट घटकर 12.7% के स्तर पर आ गया है. और यदि रेलवे को आबंटित 1.13 लाख करोड़ रुपयों को घटा दिया जाए, (याद रहे कि रेल बजट को इस बार से केन्द्रीय बजट में ही समाहित कर दिया गया है) तो परिमाण में इस वर्ष का बजट पिछले वर्ष के बजट आकार के लगभग बराबर ही रह जाएगा.

अपने बजट भाषण में वित्त मंत्री अरूण जेटली ने ‘गांव-गरीब’ का जो जाप किया है, आंकड़ों का विश्लेषण करने से ही एक बार में ढह जाता है. दरअसल, आंकड़े अपने-आप में कुछ नहीं कहते. आंकड़ों का विश्लेषण ही सच्चाई को दबाने या उजागर करने का काम करता है. और सच्चाई यही है कि दावा तो गांव-गरीबों को देने का है, यह बजट सेवा तो कार्पोरेट घरानों की ही करता है. गरीबों की झोली में इस बार उतना भी नहीं पड़ा, जितना उसे पिछली बार दिया गया था. यदि 5% मुद्रास्फीति को ही गणना में लिया जाएं, तो इस बार वास्तविक बजट आबंटन उतना भी नहीं बैठेगा, जितना वर्ष 2014-15 में उस समय किया गया था, जब यह सरकार सत्ता में आई थी. एक नज़र केवल कुछ मदों पर :

मद
वर्ष 2014-15(करोड़ रूपये)
वर्ष 2017-18 (करोड़ रूपये में)
2014-15 के आधार पर
वास्तविक आबंटन (करोड़ रूपये)
एकीकृत बाल विकास योजना
18195
15254
13178
मध्यान्ह भोजन
13215
10000
8638
राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन
24419
27131
23437
राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्य
10635
9500
8206

तो इस बजट में बच्चों-महिलाओं-बूढ़ों, छात्र-नौजवानों और बेसहारा लोगों के लिए क्या है? इस देश में 8 करोड़ बच्चे कुपोषित हैं और इनमें से लाखों बच्चे कुपोषणजन्य बीमारियों से मर रहे हैं, लेकिन 2014-15 की तुलना में वास्तविक बजट आबंटन कम हो गया है. स्पष्ट है कि कुपोषित बच्चों और मांओं की तादाद और बढ़ेगी –- और निश्चित ही, बाल मृत्यु दर भी. आने वाले वर्षों में देश की ‘तकदीर’ गढ़ने का काम इन कुपोषित, कमजोर कंधों पर होगा, लेकिन आज इनकी तकदीर ‘लिखने’ का काम तो कार्पोरेटों को सौंपा जा रहा है! आंगनबाड़ी केन्द्रों को महिला शक्ति केन्द्रों में बदलने का प्रस्ताव यही है कि 14 लाख आंगनबाड़ी केन्द्रों की बच्चों के खेलने-खाने-सीखने की छोटी-सी जगह को भी वेदांता के प्रस्ताव के अनुसार कार्पोरेटों को सौंप दिया जाएं. यदि इन आंगनबड़ियों के पास औसतन 5 डेसीमल जमीन भी हो, तो 70000 एकड़ जमीन कार्पोरेटों के हवाले की जा रही है. नगद-नारायण में यह जमीन 5 लाख रूपये प्रति एकड़ के हिसाब से 3500 करोड़ रुपयों की हैं. इससे पहले से ही दास-वेतन पर गुजारा करने वाली कार्यकर्ताओं-सहायिकाओं पर काम का बोझ और बढेगा, सो अलग.

गर्भवती माताओं के शिशु-पोषण के लिए 6000 रूपये की नगद सहायता का एक नज़र में आकर्षक लगने वाला प्रस्ताव एक ही झटके में ‘जुमला’ साबित हो जाता है, क्योंकि 2700 करोड़ रुपयों के बजट आबंटन से अधिकतम केवल 45 लाख महिलाओं को ही मदद मिल सकती हैं, जबकि हमारे देश में हर वर्ष 2.6 करोड़ बच्चे जन्म लेते हैं. भारतीय परिस्थितियों में, जहां समाज पुरूष-प्रभुता का शिकार हैं, यह नगद सहायता भी महिलाओं के हाथों तक कितना पहुंचेगी और हाथों में पहुंचने के बाद भी, गर्भस्थ-शिशु का कितना पोषण करेगी, इसका अंदाजा भी हम आसानी से लगा सकते हैं. वैसे भी एक कार्यकारी आदेश के साथ सरकार ने गर्भवती माताओं के दूसरे शिशु को इस योजना से अलग कर दिया है.

लेकिन पितृसत्तात्मक समाज में हमारे देश की महिलाएं कैसी बदतरीन दमन का शिकार हो रही हैं, निर्भया कांड केवल उसकी एक मिसाल थी. इस कांड के बाद जो जनांदोलन खड़ा हुआ, उसने इस सरकार को मजबूर किया कि एक ‘निर्भया फंड’ बनाए तथा महिलाओं की सुरक्षा और उनके कानूनी कानूनी अधिकारों की रक्षा के लिए आवश्यक उपाय करें. पिछले वर्ष इस फंड में 585 करोड़ रूपये  आबंटित किये गए थे, जबकि इस बार मात्र 400 करोड़ रूपये. इसी प्रकार, लैंगिक बजट के तहत रखा गया आबंटन कुल बजट आबंटन के केवल 5.3% के ही बराबर है. इससे ही पता चलता है कि महिलाओं के मुद्दों के प्रति यह सरकार कितनी ‘संवेदनशील’ हैं!!

यही हाल बूढ़ों और बेसहारा लोगों का है, जिनके लिए सामाजिक सहायता की छतरी को ‘सिकोड़ा’ गया है और 2014-15 के वास्तविक बजट आबंटन में 34.64% की कटौती की गई है. इससे बूढ़ों, विकलांगों और बेसहारों की तकलीफों में और ज्यादा बढ़ोतरी ही होगी.

आंगनबाड़ी की तरह ही 10.3 करोड़ स्कूली बच्चे भी इस ‘कार्पोरेटपरस्त’ बजट का शिकार होने से नहीं बच पाए, जिनके मुंह से निवाला छीनने में इस सरकार ने कोई कोताही नहीं बरती है. वास्तव में मध्यान्ह भोजन योजना के लिए आबंटन हर साल घटता गया है और 2014-15 के आधार पर वास्तविक आबंटन में तो 4.3% की कटौती की हकीकत ही सामने है. मध्यान्ह भोजन के बनाने और परोसने को लेकर जो ‘जातिवाद’ सामने आ रहा है, उससे निपटने के मामले में यह बजट ‘मौन’ ही है. इस योजना में लगभग 26 लाख मजदूर पूरे देश में काम कर रहे हैं, जिनमें से 95% दलित, विधवा और सामाजिक-आर्थिक रूप से कमजोर तबके की महिलाएं हैं. ये महिलाएं रोज 4-6 घंटे काम करती हैं, लेकिन सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम मजदूरी से भी वंचित हैं. ‘समान काम, समान वेतन’ के सिद्धांत के आधार पर अदालतों के आदेश का भी पालन करने से सरकारें इंकार कर रही हैं और एक गरिमापूर्ण जीवन जीने के अधिकार से उन्हें वंचित कर रही हैं.

शिक्षा क्षेत्र में आबंटन की भी यही कहानी है. सर्व शिक्षा अभियान में पिछले वर्ष के 28330 करोड़ रूपये के मुकाबले इस वर्ष 29556 करोड़ रूपये आबंटित किये गये हैं. मुद्रास्फीति को गणना में लेने के बाद यह वास्तविक बजट आबंटन में 1% की कटौती को ही दिखाती है. उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भी भारी कटौती है. इसी सरकार ने वर्ष 2015-16 में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) को 9315 करोड़ रूपये आबंटित किये थे, जो वर्ष 2016-17 में घटकर 4286 करोड़ रूपये रह गया यह और इस बजट में और घट गया है. स्पष्ट है कि मोदी सरकार समूची शिक्षा को निजी क्षेत्र और विदेशी पूंजी के हवाले करने के रास्ते पर और आगे बढ़ गई है.

बजट-पूर्व संध्या पर इस सरकार ने नोटबंदी का जो ‘तमाशा’ किया, उसका एक दुष्परिणाम तो यही निकला कि लगभग सभी क्षेत्रों में गरीबों को रोजगार से हाथ धोना पड़ा है तथा वापस गांवों की ओर पलायन करना पड़ा है. ऐसे लोगों की संख्या अनुमानतः एक करोड़ से ज्यादा है. इससे पहले से संकटग्रस्त ग्रामीण अर्थव्यवस्था और संकट में फंस गई है. कृषि की बर्बादी के चलते इन मजदूरों के पास मनरेगा ही एकमात्र सहारा है और इनके लिए 40000 करोड़ रुपयों के अतिरिक्त आबंटन की जरूरत थी. लेकिन मनरेगा का बजट लगभग उतना ही है, जितना पिछले साल खर्च किया गया था. वर्ष 2016-17 में 47400 करोड़ रूपये खर्च करके 220 करोड़ मानव-दिवस सृजित करने का अनुमान है, जबकि इस वर्ष का बजट आबंटन मात्र 48000 करोड़ रूपये ही है, जिससे अधिकतम 200 करोड़ मानव-दिवस ही सृजित हो पाएंगे. बजट आबंटन और रोजगार सृजन के आंकड़ों से स्पष्ट है कि ग्रामीण मजदूरों को औसतन 107 रूपये प्रतिदिन की दर से ही मजदूरी दी जा रही है, जो न्यूनतम मजदूरी से भी बहुत नीचे है और वास्तव में तो बंधुआ-मजदूरी दर ही है. स्पष्ट है कि यह बजट आबंटन मोदी सरकार की मनरेगा के प्रति ‘हिकारत’ को ही दर्शाता है, जिसकी राजनीतिक मजबूरी है कि वह ग्रामीण गरीबों को रोजगार देने वाली विश्व की इस अनोखी योजना को बंद करने की स्थिति में नहीं है. लेकिन इस योजना को पंगु करने पर वह आमादा तो है ही. मनरेगा की उपेक्षा के कारण ग्रामीण बेरोजगारी में और भारी बढ़ोतरी होने जा रही है.

दो करोड़ लोगों को हर साल रोजगार देने का भाजपा का चुनावी वादा भी ‘जुमला’ ही साबित हुआ है. पिछले वर्ष केवल 1.35 लाख लोगों को रोजगार मिला, जबकि 1.35 करोड़ लोगों ने रोजगार-बाज़ार में कदम रखा. नोटबंदी ने लोगों के हाथों से रोजगार छीनने का ही काम किया है और यह रोजगार-क्षय अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र में प्रभावी रहा.सातवें वेतन आयोग द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन पर आधारित रोजगार को सुनिश्चित करने के बजाये सरकार का पूरा जोर असंगठित क्षेत्र में ऐसे कुशल बेरोजगारों की फ़ौज को तैयार करना है, जो उद्योगपतियों की जरूरतों को उनके मनमाफिक पूरा कर सके. प्रधानमंत्री यही करने जा रहा है. इससे मजदूरों में प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी और मजदूरी में भारी गिरावट आएगी. दरअसल, जीडीपी आधारित विकास की अवधारणा ने ‘रोजगाररहित’ अर्थव्यवस्था के विकास को ही बढ़ावा दिया है. इस सरकार ने स्पष्ट रूप से घोषणा भी कर दी है कि नौजवानों को रोजगार देने की जिम्मेदारी उसकी नहीं है.   

विश्व बैंक-अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का नुस्खा एक वैश्वीकृत बाज़ार के विकास में  सब्सिडी को सबसे बड़ा रोड़ा मानता है. मोदी सरकार इस नुस्खे की सबसे बड़ी पैरोकार बनकर सामने आई है, जिसके लिए ‘सब्सिडी’ देश के विनाश का प्रतीक है, तो ‘कर-प्रोत्साहन’ विकास के लिए जरूरी. फंड-बैंक का यही अर्थशास्त्र मोदी का गुरुमंत्र है, जो चाहता है कि नंगों-भूखों को भी बाज़ार में खड़ा करके निचोड़ा जाएं. यह अर्थशास्त्र आम जनता, किसान और गरीबों को दी जाने वाली हर सब्सिडी को पूरी तरह ख़त्म करके उसे बाज़ार में खड़ा करना चाहता है. यही कारण है कि सार्वभौमिक वितरण प्रणाली को ख़त्म करने के बाद अब राशन कार्डों को ‘आधार’ से जोड़ने की कसरत की जा रही है, खाद सहित खेती-किसानी की सभी चीजें महंगी की जा रही है और अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की गिरावट के बावजूद इसका फायदा आम जनता तक जाने से रोका गया है. खाद्यान्न, खाद और पेट्रोलियम पर वर्ष 2015-16 में 2.42 लाख करोड़ रुपयों की सब्सिडी दी गई थी, जिसे वर्ष 2016-17 के बजट में 4% घटाकर कुल बजट आबंटन का 9.5% किया गया था और इस वर्ष के बजट में इसे और घटाकर कुल बजट आबंटन के 7.9% तक सीमित कर दिया गया है. इस प्रकार मोदी राज के तीन बजटों में गरीबों के लिए अत्यावश्यक सब्सिडी में 30% से ज्यादा कटौती की गई है. इस सब्सिडी में कटौती का अर्थ है – खेती-किसनी की लगत का बढ़ना और खाद्यान्न का और ज्यादा महंगा होना.

लेकिन खेती-किसानी की लागत बढ़ने से कृषि का संकट और गहरा होगा, जिसके नतीजे में मोदी राज में किसान आत्महत्याएं पहले से डेढ़ गुना बढ़ चुकी है. लेकिन कृषि-निर्भर 80 करोड़ जनसंख्या के लिए, जिनमें से तीन-चौथाई
पहले ही भुखमरी के शिकार हैं,उनके लिए बजट में मात्र 58000 करोड़ रूपये ही हैं. यह कुल बजट आबंटन का 2.7% तथा जीडीपी का मात्र 0.4% है. किसानों की मोदी सरकार के प्रति वफ़ादारी ‘बस इतनी-सी’ है. हां, उनके लिए सरकारी बैंकों से 10 लाख करोड़ रुपयों के भारी-भरकम क़र्ज़ की व्यवस्था जरूर की गई है, जिसे हमेशा की तरह कृषि व्यापार करने वाली कंपनियां डकार जायेंगी. अगले पांच वर्षों में किसानों की आय दुगुनी करने की घोषणा पिछले बजट में की गी थी, लेकिन नोटबंदी के दुष्प्रभावों के कारण इस वर्ष किसानों की आय आधी रह गई और कृषि विकास दर 4.1% प्राप्त करने क लक्ष्य धरा रह गया. इस बार के बजट में फिर किसानों की आय दुगुनी करने की घोषणा की गई है. श्रीमान मोदी, साधारण गणित कहता है कि अब सरकार को किसानों की आय अगले चार वर्षों में चौगुनी करनी होगी. लेकिन जिन नीतियों को लागू कर रहे हो, उससे यह संभव नहीं!! हां, वर्त्तमान में खेती में लगी 56% आबादी को वर्ष 2022 तक 31% तक लाने का लक्ष्य जरूर पूरा होगा. इसके लिए बजट में ‘ठेका खेती’ का प्रावधान किया गया है, जिसका मतलब ही है – खेती से किसानों को भगाओ, कारपोरेटो को लाओ. वैसे भी मोदी ने स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के अनुसार लागत मूल्य का डेढ़ गुना समर्थन मूल्य के रूप में किसानों को देने से इंकार कर दिया है और किसानी घाटे का सौदा हो गई है. वैसे भी वनोपजों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में इस वर्ष सरकार ने 57% तक की कटौती कर दी है और आदिवासियों की आजीविका के एक बड़े स्रोत को ही नष्ट करने की कोशिश की है. न रहेंगे किसान. न रहेंगे आदिवासी – तो जल, जंगल, जमीन, खनिज और अन्य प्राकृतिक संसाधनों को कार्पोरेटों के हाथों सौंपना आसान होगा.  

इस बजट में आदिवासी उपयोजना के तहत कुल बजट का केवल 2.44% तथा दलित उपयोजना के तहत केवल 1.48% ही आबंटित किया गया है, जबकि हमारे देश में इन दोनों समुदायों की कुल जनसंख्या लगभग एक-चौथाई है. ये समुदाय हमारे देश के सबसे ज्यादा शोषित, उत्पीड़ित व दमित समुदाय है और बड़े पैमाने पर भूमिहीनता और विस्थापन के शिकार है. लेकिन अनुभव बताता है कि इस अत्यल्प बजट को भी उनकी भलाई के लिए खर्च नहीं किया जाएगा. इस सरकार द्वारा आदिवासियों के लिए वनबंधु कल्याण योजना लागू की गई है, जिसके लिए वर्ष 2015-16 में 200 करोड़ रुपयों का प्रावधान किया गया था, लेकिन खर्च किये गए 25 करोड़ रूपये से कम ही. दलित-आदिवसियों के प्रति मोदी सरकार का यह रूख उस संघी दर्शन के अनुरूप ही है, जिसके ‘हिन्दू राष्ट्र’ में इन समुदायों की स्थिति केवल सेवा करने वाले दासों की होती है.

बजट में इस ‘जाहिर’ सच्चाई को स्वीकार करने के बावजूद कि बड़े पैमाने पर कर-चोरी की जा रही है, धन-कुबेरों और कार्पोरेट कंपनियों से सख्ती से कर वसूलकर करधर बढ़ाने की जरूरत थी. लेकिन ‘कर-प्रोत्साहन’ के जरिये विकास को लालायित इस सरकार से ऐसी अपेक्षा नहीं की जा सकती. इस बार फिर उसने इन धनकुबेरों को प्रत्यक्ष कर में 6.59 लाख करों रुपयों की छूट दी है. पिछले 15 सालों में ‘विकास के नाम पर’ इन मगरमच्छों की तिजोरियों में 60 लाख करोड़ रूपये डाले गए हैं, लेकिन देश के 60 करोड़ किसानों पर लदा 60000 करोड़ रुपयों का क़र्ज़ माफ़ करने के लिए वह तैयार नहीं है. याद रखें कि ये वही धनकुबेर हैं, जिन्होंने बैंकों के 11 लाख करोड़ रूपये हड़प लिए हैं और ये वही कालेधनधारक हैं, जिनकी विदेशों में अथाह संपत्ति जमा है और जिनकी सूची विकीलीक्स से लेकर पनामा पेपर्स व स्वीडन के बैंकों ने इस सरकार को सौंपी हैं. ये वही लोग हैं, जो भारतीय अदालतों से बचकर विदेशों में मौज कर रहे हैं. लेकिन इन लोगों को हाथ लगाने की भी हिम्मत इस सरकार में नहीं हैं. उलटे उसने बैंकों की एनपीए सीमा 7.5% से बढ़ाकर 8.5% करने का रास्ता ही अपनाया है.

रेलवे बजट को केन्द्रीय बजट के साथ मिला दिए जाने का नतीजा यह हुआ है कि देश की सबसे बड़ी सार्वजनिक यातायात व परिवहन व्यवस्था पर चर्चा ही नहीं हुई है. रेलवे के बजट आबंटन में मात्र 10000 करोड़ रुपयों की वृद्धि की गई है और मुद्रास्फीति को गणना में लिया जाएं, तो वास्तविक बजट आबंटन घटा ही है. इससे रेलवे विस्तार,आधुनिकीकरण व सुरक्षा-खामियों को दूर करने की योजनाएं अधर में तो लटकेंगी ही, किराया व माल-भाड़े में वृद्धि करके जनता पर बोझ भी डाला जायेगा. वास्तव में पूरी कसरत रेलवे के निजीकरण की ओर गुपचुप ढंग से बढ़ने की ही है.

यह बजट ‘भारतीय योजना की विदाई’ वाला बजट भी है. योजना आयोग के खात्मे के बाद बने ‘नीति आयोग’ का मुख्य लक्ष्य यही रह गया है कि किस प्रकार सुनियोजित विकास के ताने-बाने को ध्वस्त करने की ‘नीति’ अपनाई जाए. बजट में योजना व्यय और गैर-योजना व्यय को एक साथ मिला देने से अब इस बात क विश्लेषण करना मुश्किल हो जाएगा कि किसी ख़ास योजना के लिए आबंटित बजट क कितना हिस्सा वास्तविक हितधारकों तक पहुंच रहा है और कितना हिस्सा प्रशासकीय व्यय में खर्च हो रहा है. इससे सरकार को बजटीय आबंटन को मनमाने तरीके से खर्च करने के ‘असीमित अधिकार’ मिल गए हैं. जो लोकतंत्र के बुनियादी ढांचे को ही नुकसान पहुंचाएगा.


तो इस बजट में देश के बच्चों-बूढ़ों, छात्र-नौजवान-महिलाओं, किसान-मजदूरों के लिए कुछ नहीं है. जो कुछ हैं, इस देश के धनकुबेरों और कार्पोरेटों के लिए हैं. पिछले बजट का फायदा भी इन्हें ही मिला था. आखिर बजट तो उन्हीं लोगों के लिए होगा, जो इस देश की बुर्जुआ प्रतियों को ‘फंडिंग’ करते हैं. जिनका इस फंडिंग में योगदान नहीं, उन्हें अपने लिए बजट में मांगने का भी कुछ अधिकार नहीं. इसलिए यह पूछना बेमानी है कि पिछले साल के बजट में पैसेंजर ट्रेनों को 80 किमी. की स्पीड से चलाने या 900 से अधिक अतिरिक्त नए कोचों के निर्माण का जो लक्ष्य रखा गया था, उसका क्या हुआ? उच्च शिक्षा के लिए जो एजेंसी बनाई गयी थी, उसने कितना ‘वित्तपोषण’ किया? यह भी मत पूछो कि रोजगार सृजन योजनाओं के लिए जो 1155 करोड़ रूपये आबंटित किये गए थे, उससे रोजगार पैदा क्यों नहीं हुए? केन्द्रीय भंडारण में 97 लाख टन बढ़ोतरी करने और 3 करोड युवाओं को कौशल विकास केन्द्रों के जरिये प्रशिक्षित करने का जो लक्ष्य रखा गया था, उसका क्या हुआ? ये सब तो ‘बजटीय जुमले’ थे इस देश के नागरिकों के लिए. बहरहाल, ‘देशभक्त’ नागरिक ये सब सवाल नहीं पूछा करते. ....और फिर भी यदि ये सब पूछने की हिमाकत करोगे बच्चू, तो तुम्हें ‘राष्ट्रविरोधी’ बनाकर पाकिस्तान भेजने के लिए संघी गिरोह तैयार है. 

Thursday 19 January 2017

नोटबंदी से भारतीय कृषि की नसबंदी


हर रिपोर्ट बता रही है कि नोटबंदी का देश की अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ा है. विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, जिनके नुस्खों पर यह सरकार अपनी नीतियां तय करती हैं, का स्पष्ट मानना है कि जीडीपी वृद्धि दर में गिरावट आएगी. वैसे भी, वर्ष 2016-17 के पहले छःमाही के आंकड़े बता रहे हैं कि अर्थव्यस्था के सभी क्षेत्रों में गिरावट जारी है और ये आंकड़े ‘नोटबंदी’ के पहले के हैं. औद्योगिक जगत कम उत्पादन, छंटनी और तालाबंदी का शिकार हुआ है और कम-से-कम 50 लाख मजदूर शहर छोड़कर गांवों की ओर लौटने को मजबूर हुए हैं, जहां पहले से ही काम की तंगी है. इस ‘प्रतिकूल पलायन’ के कारण सरकार की शहरीकरण से जुड़ी तमाम योजनाएं ध्वस्त होने जा रही हैं. इस प्रकार, नोटबंदी देश के लिए ‘आर्थिक नसबंदी’ साबित हुई है. हवा में उड़ती सरकार भी अब जमीन पर आती दिख रही है, इस बचाव के साथ कि इस कदम के कारण होने वाले नुकसान तो ‘अल्पकालिक’ है, लेकिन इसके ‘दीर्घकालीन फायदे’ होने जा रहे है और विकास के लिए ‘राष्ट्रभक्त नागरिकों’ को इतनी कुर्बानी तो देनी ही चाहिए. ‘राष्ट्रविरोधी तत्वों’ से वह अपने तरीके से निपट ही लेगी.

लेकिन इस ‘आर्थिक नसबंदी’ का भारतीय कृषि पर कितना प्रभाव पड़ा है, इसका समग्र आंकलन आने में अभी समय लगेगा. वैसे भी, खेतिहरों को छोड़कर किसी की भी दिलचस्पी कृषि में नहीं है –- सरकार की भी नहीं, क्योंकि देश के विकास का आंकलन तो जीडीपी से किया जाता है. कृषि का देश की जीडीपी में योगदान 1950-51 में 53% था, जो आज 13-14% से ज्यादा नहीं है. इसलिए 60% जनता, जिसकी आजीविका कृषि से ही जुड़ी हुई है, आज हर लिहाज से अप्रासंगिक है, क्योंकि अब वे वैश्वीकृत बाजार का हिस्सा नहीं बन सकते. वैश्वीकरण का मूल मंत्र बाजार है. जिनका बाजार में योगदान नहीं, उन्हें जिंदा रहने का भी हक़ नहीं है. अतः चुनावों के दौरान भी खेती-किसानी और खेतिहर समाज की समस्यायें मुद्दा नहीं बन पाती.

लेकिन समस्या यही है कि सत्ता में बैठे लोग अपनी मनमर्जी की जनता नहीं चुन सकते. कृषि पर निर्भर 60% आबादी, जिनका वैश्वीकरण की बाजार-अर्थव्यवस्था में कोई ख़ास योगदान नहीं है, को आप नागरिकता से वंचित नहीं कर सकते. वे नागरिक हैं, मतदान करते हैं और कभी-कभी पलटकर तीखा वार भी करते हैं. चुनाव के बाद सरकारों को कुछ समय तक संभलकर चलना भी पड़ता है, ताकि अधिकांश समय बिना किसी ताकतवर विरोध के कार्पोरेटों की सेवा कर सके.

लेकिन कृषि का जीडीपी में योगदान भले ही आठवां हिस्सा हो, इस पर 75 करोड़ जनता निर्भर है. मोदी सरकार के सत्ता में आने से पहले वर्ष 2013-14 में कृषि विकास दर 4% थी और इन तीन सालों में इसमें भारी गिरावट आई है. इसका देश की समग्र अर्थव्यवस्था पर भले ही कोई ख़ास प्रभाव न पड़ा हो, खेतिहरों के जीवन पर इसका भारी नकारात्मक असर पड़ा है. इस गिरावट का भी अधिकांश बोझ उन गरीबों को उठाना पड़ा है, जो खेतिहर आबादी का तो 87% है, लेकिन जिनकी मात्र 44% कृषि भूमि पर ही मिल्कियत है और इसके बावजूद वे कुल सब्जियों का 70% और कुल खाद्यान्न का 52% उत्पादन करते हैं. इसलिए अर्थव्यवस्था में किसी भी तरह की थोड़ी-सी भी गिरावट उनके जीवन में कहर ढाती है.

हम कहने के लिए तो यह दाव कर सकते हैं कि भारत का सालाना कृषि उत्पादन 28-29 लाख करोड़ रुपयों का है, लेकिन यह प्रश्न भी उतना ही मौजूं है कि क्या ये पैसे वास्तविक किसानों के घर पर पहुंचते हैं या बिचौलियों का घर भरता है? हम अनाज उत्पादन मूल्य की गणना उत्पादन की मात्रा का समर्थन मूल्य से गुणा करके आसानी से निकाल सकते हैं, लेकिन किसान की जिंदगी सरल गणित नहीं होती, जिसमें धन और गुणा ही हो. उसकी जिंदगी में ऋण और भाग की ही प्रधानता होती है. पहला ‘ऋण’ तो यही कि इस देश में रखरखाव के साधनों के अभाव में एक लाख करोड़ रुपयों की सब्जियां ही सड़ जाती है और यह ‘ऋण’ किसानों के हिस्से ही जमा होता है, किसी मुनाफा पीटने वाले बिचौलिए के खाते में नहीं. यह मार भी हर साल साधारण वक़्त की है. नोटबंदी ने पूरे देश में जो ‘मुद्रा संकट’ पैदा किया, उसके कारण सब्जियों की कीमतों में भारी गिरावट आई और सब्जी उत्पादक किसान लागत मूल्य से भी वंचित हो गये. पूरे देश में उन्होंने सब्जियों को सड़कों पर फेंककर अपना विरोध जताया. टमाटर उत्पादक किसानों को पचास पैसे किलो का भाव भी नहीं मिला, जबकि इसी समय बिचौलियों ने बाजार में यह टमाटर पांच रूपये किलो के भाव से बेचा. नोटबंदी के कारण सब्जियों की इस ‘अतिरिक्त’ बर्बादी का आंकलन आने में अभी समय लगेगा.

केन्द्रीय सत्ता में आने से पहले जिस भाजपा ने स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के आधार पर लागत मूल्य का डेढ़ गुना न्यूनतम समर्थन मूल्य के रूप में किसानों को देने का वादा किया था, सत्ता में आने के बाद उसने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दे दिया कि वह इतना ‘लाभकारी’ मूल्य देने के लिए तैयार नहीं है. उसने राज्यों को यह भी निर्देश दिया है कि उसके द्वारा घोषित समर्थन मूल्य पर किसी प्रकार का ‘बोनस’ किसानों को न दिया जाएं. स्थिति यह है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य कृषि उत्पादों के न्यूनतम लागत की भी भरपाई नहीं करता. इसके ऊपर से सरकारी मंडियों में ही प्रबंधन इस बात को सुनिश्चित नहीं करता कि किसानों को यह न्यूनतम मूल्य भी मिले, क्योंकि बिचौलियों के साथ उसकी सांठगांठ रहती है.

नोटबंदी नवम्बर-दिसम्बर माह में आने वाली फसलों के लिए कहर बनकर आई. सभी जगहों की खबरें बता रही हैं कि 700-800 रूपये प्रति क्विंटल के भाव पर किसान अपना धान बेचने के लिए मजबूर हैं. बाजार में फसल की कीमतों में इतनी भारी गिरावट पिछले पांच सालों में देखने को नहीं मिली. इसमें सहकारी बैंकों की पंगुता ने भी भारी योगदान दिया.

आज भी हमारे देश में सहकारिता कृषि क्षेत्र की रीढ़ है. ग्रामीण जनता और किसानों का काम-काज सहकारी बैंकों के जरिये ही चलता है. पुराने नोटों के लेन-देन पर पहले दिन से ही इन बैंकों पर रोक लगाने से ग्रामीण अर्थव्यवस्था पूरी तरह से ठप्प हो गई. वास्तविक कालाधनधारकों को निशाना बनाने के बजाए सरकार ने उन किसानों को निशाना बनाया, जिनके पास अपना कहने को ‘सफ़ेद’ भी नहीं है. सहकारी समितियां ‘लिंकिंग’ का धान काटने में ही व्यस्त रही, लेकिन किसानों के बकाया भुगतान के लिए ढाई माह बाद भी सक्षम नहीं हो पाई है.

भाजपा और कांग्रेस द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने के दावे बढ़-चढ़कर किये जाते है, लेकिन वास्तविकता यह है कि पिछले 30 सालों में जिस कदर महंगाई बढ़ी है, उसके कारण कार्पोरेट मुनाफों में तो 1000% की वृद्धि हुई है और कर्मचारियों का वेतन सरकार को लगभग चार गुना बढ़ाना पड़ा है, लेकिन किसानों की आय में मात्र 19% की ही वृद्धि हुई है. वह सरकारी विभाग के एक अकुशल मजदूर को मिलने वाली मजदूरी तक से वंचित है. क्या सरकार की नजर में कृषि कार्य एक अकुशल कार्य से भी निम्न स्तर का है? यदि नहीं, तो सरकार को इस तरह के उपाय करने चाहिए कि हर किसान परिवार की न्यूनतम कृषि आय न्यूनतम मजदूरी के बराबर हो सके, जैसा कि कई किसान संगठन और विशेषज्ञ यह मांग कर रहे हैं.

नोटबंदी का असर न केवल फसलों के विक्रय मूल्य पर पड़ा है, इसका असर आने वाली सीजन की फसलों पर भी पड़ने जा रहा है. निश्चित रूप से कृषि उत्पादन का रकबा प्रभावित होगा और इसका परिणाम हमें उत्पादन में गिरावट के रूप में दिखेगा. फसलों की बोनी की तैयारी के समय उसके हाथ कटे हुए थे. उसे सहकारी बैंकों से सहायता तो मिलनी नहीं थी, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक भी नोट गिनने में ही लगे थे. निजी बैंक तो खैर घोटालों में ही व्यस्त थे और अब प्रिंटिंग प्रेस से ही घोटालेबाजों तक सीधे नोट पहुंचने की कहानियां भी छनकर सामने आने लगी है. उसने जैसे-तैसे बोनी के लिए खेतों को तैयार किया भी, तो ‘नगद-नारायण’ के अभाव में उसके पास न बीज था, न खाद-दवाई. खेतों की तैयारी में लगाए पैसे भी व्यर्थ हो गए और इससे या तो उसकी जमा-पूंजी को नुकसान हुआ या फिर महाजनी क़र्ज़ का फंदा और मजबूत हुआ. इसका असर फिर बारिश के मौसम में फसल की तैयारियों पर पड़ेगा.

इसका मतलब है कि वर्ष 2016-17 के साथ ही वर्ष 2017-18 में कृषि उत्पादन में गिरावट आयेगी. इस गिरावट का मुकाबला आयात के जरिये किया जाएगा. भारत आज भी अंतर्राष्ट्रीय बाजार में खड़ा है गेहूं और दाल के आयात के लिए. जब भारत अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कदम रखता है, तो बाजार की बांछे खिल जाती है, क्योंकि यह उसके लिए छप्पर-फाड़ मुनाफा कमाने का मौका देता है. देश में इस वर्ष गेहूं का भरपूर उत्पादन हुआ, लेकिन इसके बावजूद हमने 35 लाख टन गेहूं का आयात किया और देश के किसानों को दिए जाने वाले भाव से 25% ऊंचे भाव पर आयात किया. फिर जनता को ‘सस्ता मिलने’ की दुहाई देकर आयात शुल्क शून्य प्रतिशत कर दिया. दालों की भी यही कहानी है कि हर साल ऊंची कीमतों पर उसे आयात करते हैं जनता का पेट भरने के नाम पर. जनता को सस्ता मिले या न मिले, उसका पोषण हो या न हो, अनाज मगरमच्छों के पौ-बारह जरूर हो गए. नोटबंदी के एक कदम ने कितने बड़े-बड़े लोगों के लिए कितने बड़े-बड़े मुनाफे कमाने के मौके दिए हैं !!

देश में 75% से ज्यादा खेतिहरों के पास एक हेक्टेयर से कम जमीन है और इनमें से आधे लगभग भूमिहीनता की स्थिति में है. किसानी घाटे का सौदा है. किसान परिवारों की औसत मासिक आय 6426 रूपये है, तो मासिक व्यय 6736 रूपये – औसत आय से 5% ज्यादा. लेकिन इन 75% खेतिहरों के लिए आय और व्यय का अंतर 25% से भी ज्यादा है. इसीलिए औसत भारतीय किसान ऋणग्रस्त है और एनएसएसओ के सर्वे के अनुसार देश के 46% किसानों पर औसतन 47000 रुपयों का ऋण चढ़ा हुआ है. अधिकांश कर्ज ‘महाजनी’ है, क्योंकि बैंकों का कर्जा तो उद्योगपतियों को मिलता है, गरीब खेतिहरों को नहीं. सरकारी आंकड़े ही बताते हैं कि उद्योगों को बैंक कृषि की तुलना में तीन गुना ज्यादा कर्ज दे रहे हैं. कृषि ऋण भी गरीब किसानों को नहीं, बल्कि कृषि से संबंधित गतिविधियों के लिए ग्रामीण धनिकों के हिस्से ही पहुंचता है. यही करण है कि संयुक्त राष्ट्र संघ के अंतर्राष्ट्रीय खाद्य और कृषि संगठन के अनुसार, भारत में हर रोज 2052 किसान खेती छोड़ रहे हैं और हर आधे घंटे में एक किसान आत्महत्या कर रहा है. एनएसएसओ के ही अनुसार, वर्ष 2014 में 5650 किसानों ने आत्महत्या की थी, जो मोदी राज में बढ़कर डेढ़ गुना हो गई है. निश्चित ही, नोटबंदी कृषि बर्बादी की इस प्रक्रिया को और तेज करेगी. इसका समुचित आंकलन करने के लिए एक वर्ष और इंतज़ार करना पड़ेगा.

तो नोटबंदी से खेती-किसानी को नुकसान पहुंचने का मुआवजा किसानों को मिलना ही चाहिए. एक तात्कालिक कदम तो यही हो सकता है कि उन पर चढ़े फसल ऋण के 60000 करोड़ रूपये तत्काल माफ़ किये जाएं. यह हमारी कुल जीडीपी का 0.5% ही है और बैंकों के एनपीए और धनकुबेरों को हर वर्ष दी जा रही 6 लाख करोड़ रुपयों के कर-प्रोत्साहन की तुलना में तो ‘नगण्य’ ही है. उन्हें ‘महाजनी ऋण’ से मुक्त करने के लिए भी क़ानून बनाए जाने चाहिए. यह ऋण माफ़ी न केवल किसानों को राहत देगी, समूची कृषि के लिए भी ‘उत्प्रेरण’ का काम करेगी.

दूसरा तात्कालिक काम मनरेगा के जरिये ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत करने का होना चाहिए. नोटबंदी के कारण शहरों में रोजगार ख़त्म हुए हैं और गांवों में कामगार वापस लौटे हैं. इससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर बोझ बढ़ा है और अकेला कृषि क्षेत्र इस बोझ को वहन नहीं कर सकता. इससे कृषि मजदूरों की दैनिक मजदूरी और आय में भयंकर गिरावट आएगी. इसे रोकने के लिए मनरेगा ही सहारा है. नवम्बर के पहले सप्ताह में जहां 30 लाख लोग मनरेगा में काम मांग रहे थे, दो माह बाद जनवरी के पहले सप्ताह में इनकी संख्या बढ़कर 83 लाख हो गई. लेकिन दिक्कत यह है कि नोटबंदी का रोजगार गारंटी पर भी असर पड़ा है और नवम्बर माह में ही इसमें 55% की गिरावट दर्ज की गई है. काम मांगने वालों की संख्या बढ़ी, लेकिन रोजगार उपलब्धता में ही गिरावट आई. पूरे देश में आधे मजदूरों को देरी से भुगतान हो रहा है – और कुछ मामलों में तो दो वर्ष से मजदूरी भुगतान लंबित है. इसलिए ग्रामीण क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश बढ़ाना होगा और सभी इच्छुकों को काम देकर सही समय पर भुगतान करना होगा, वरना भयंकर अफरा-तफरी और अराजकता का सामना सरकार को करना होगा.

नोट बंदी के बाद बैंकों को जो आय हुई है, उससे इन दोनों कामों को आसानी से अंजाम दिया जा सकता है.

सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनोमी ने नोटबंदी के बाद देश की अर्थव्यवस्था को 50 दिनों में 1.28 लाख करोड़ रुपयों का नुकसान होने क अनुमान लगाया है. लेकिन इस अनुमान में कृषि व्यवस्था को होने वाले नुकसान की गणना शामिल नहीं है. चूंकि यह कृषि संकट लंबे समय तक जारी रहेग, संभावित नुकसन भी काफी बड़ा होगा. लेकिन इस नुकसान की समुचित गणना के लिए अभी एक लंबे समय तक इंतजार करना होगा.